Book Title: Shatkhandagama Pustak 03
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 568
________________ १, २, १७७. ] दव्वपमाणाणुगमे सम्मत्तमग्गणापमाणपरूवर्णं [ ४७५ पुव्वसुत्तादो खइयसम्माइट्ठि त्ति अणुवट्टदे | ओघपमाणं ण पूरेदि' त्ति जाणावणङ्कं संखेज्जवयणं । संजदासंजदखइयसम्म इट्टिणो कथं संखेज्जा ? ण, तेसिं मणुसगहवदिरित्तसे सगईसु अभावाद । पुव्वं बद्धतिरिक्खाउआ सम्मतं घेतूण दंसणमोहणीयं खविय तिरिक्खेसु उववज्र्ज्जता लब्भंति तेण संजदा संजदखइय सम्माइट्टिणो असंखेज्जा लब्भंति त्ति चे ण, पुत्रं बद्धाउअखइयसम्माइट्ठीणं तिरिक्खे सुप्पण्णाणं संजमासंजमगुणाभावादो । कुदो ? भोगभूमिमंतरेण तेसिमुप्पत्तीए अण्णत्थ संभवाभावादो। ण च तिरिक्खेसु दंसणमोहणीयखवणा व अस्थि, 'णियमा मणुसगईए' इदि वयणादो | चउन्हं खवा अजोगिकेवली ओघं ॥ १७७ ॥ एत्थ चउन्हं कम्माणं घाइसण्णिदाणं खवगा इदि अज्झाहारो कायव्वो । चउसदोगुणा विसेसणं कण्ण होदि त्ति वृत्ते ण, तत्थ छट्ठीणिदेसाणुववत्तदो । सेसं सुगमं । पूर्व सूत्र से इस सूत्र क्षायिक सम्यग्दृष्टि इस पदकी अनुवृत्ति होती है । संयतासंयत से उपशांतकषाय गुणस्थानतक क्षायिकसम्यग्दृष्टियों का प्रमाण ओघप्रमाणको पूर्ण नहीं करता है, इसका ज्ञान कराने के लिये सूत्र में ' संख्यात हैं ' यह वचन दिया है। । शंका - संयतासंयत क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यात कैसे हैं ? समाधान - नहीं, क्योंकि, संयतासंयत क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव मनुष्य गतिको छोड़कर शेष गतियों में नहीं पाये जाते हैं, और पर्याप्त मनुष्य संख्यात ही होते हैं, इसलिये संयतासंयत क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव भी संख्यात ही होते हैं, ऐसा कहा । शंका- जिन जीवोंने पहले तिर्यचायुका बंध कर लिया है ऐसे जीव सम्यक्त्वको ग्रहण करके और दर्शनमोहनीयका क्षय करके तिर्यचों में उत्पन्न होते हुए पाये जाते हैं, इसलिये संयतासंयत क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव असंख्यात होना चाहिये । समाधान — नहीं, क्योंकि, जिन्होंने पहले तिर्यचायुका बन्ध कर लिया है ऐसे तिर्यचों में उत्पन्न हुए क्षायिकसम्यग्दृट्टियोंके संयमासंयमगुण नहीं पाया जाता है, क्योंकि, भोगभूमिके बिना अन्यत्र उनकी उत्पत्ति संभव नहीं है । तथा तिर्यंचों में दर्शनमोहनीयकी क्षपणा भी नहीं पाई जाती है, क्योंकि, दर्शनमोहनीयकी क्षपणा नियमसे मनुष्यगति में ही होती है, ऐसा आगमवचन है । चारों क्षपक और अयोगिकेवली जीव ओघप्ररूपणा के समान हैं । १७७ ॥ यहां पर क्षपक पदले घातिसंज्ञक चारों कर्मों के क्षपक, ऐसा अध्याहार कर लेना चाहिये । शंका- सूत्रमें आया हुआ 'चउ' शब्द गुणस्थानों का विशेषण क्यों नहीं होता है ? समाधान - ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं कि नहीं, क्योंकि, 'च' शब्द में षष्ठी २ प्रतिषु 'संजदा ' इति पाठः । १ प्रतिषु ' ओषपमाणं पूरेदित्ति ' इति पाठः । ३ चत्वारः क्षपकाः सयोग केव लिनोऽयोगकेवलिनश्च सामान्योक्तसंख्याः । स. सि. १.८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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