Book Title: Shatkhandagama Pustak 03
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, २, ७९.] दवपमाणाणुगमे वेइंदियादिपमाणपरूवणं
[ ३१३ खेत्तेण वेइंदिय-तीइंदिय-चउरिंदिय तस्सेव पज्जत्त-अपजत्तेहि पदरमवहिरदि अंगुलस्स असंखेजदिभागवग्गपडिभाएण अंगुलस्स संखेज्जदि भागवग्गपडिभाएण अंगुलस्स असंखेजदिभागवग्गपडिभाएण॥७९॥
___ एदस्स सुत्तस्स अत्था बुच्चदे । तं जहा- 'जहा उद्देसो तहा णिहेसो ' ति णायादो पुव्वुद्दिढवि-ति-चउरिंदियाणं पमाणं पुव्वुद्दिट्टमेव भवदि। मज्झिल्लं मज्झम्हिःसमुद्दिट्ठपज्जताणं भवदि । अंतिल्लं पि अंतुद्दिटुं तेसिमपज्जत्ताणं हवदि । एदेहि सामण्णविगलिंदिएहि तेसिं चेव पजत्तेहि विगलिंदियअपज्जत्तएहि जगपदरमवहिरदि । अंगुलस्स सूचिअंगुलस्स असंखेजदिभागो सूचिअंगुलमावलियाए असंखेजदिभाएण खंडिदेयभागो। तस्स वग्गो तारिसेण अवरेण गुणिदरासी पडिभागो अवहारकालो। एवं चेव अपज्जत्तसुत्तं पि विवरेयव्वं । एवं चेव पज्जत्तमुत्तं पि वक्खाणेयव्वं । णवरि सूचिअंगुलस्स संखेजदिभाए
. क्षेत्रकी अपेक्षा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवोंके द्वारा सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागके वर्गरूप प्रतिभागसे जगप्रतर अपहृत होता है । तथा उन्हींके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंके द्वारा क्रमशः सूच्यंगुलके संख्यातवें भागके वर्गरूप प्रतिभागसे और सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागके वर्गरूप प्रतिभागसे जगप्रतर अपहृत होता है ॥ ७९ ॥
___अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं । वह इसप्रकार है- 'उद्देशके अनुसार निर्देश किया जाता है । इस न्यायके अनुसार सर्व प्रथम कहे गये द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवोंका प्रमाण सर्व प्रथम कहा गया ही है। मध्य में कह गये पर्याप्तोंका प्रमाण गया है । और अन्तमें कहा गया प्रमाण भी अन्त में कहे गये उन्हींके अपर्याप्तकोंका है। इनके द्वारा अर्थात् सामान्य विकलत्रयोंके द्वारा, उन्हींके पर्याप्तकोंके द्वारा और विकलेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके द्वारा जगप्रतर अपहृत होता है । यहां पर अंगुलसे तात्पर्य सूच्यंगुलका और उसके असंख्यातवें भागसे तात्पर्य सूच्यंगुलको आवलीके असंख्यातवें भागसे खंडित करके जो एक भाग लब्ध आवे उससे है। उस सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागका वर्ग इसका यह तात्पर्य हुआ कि उस सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागको तत्प्रमाण दूसरी राशिसे गुणित कर दो। ऐसा करने पर जो राशि उत्पन्न होगी वह यहां पर प्रतिभाग अर्थात् अवहारकाल है। इसीप्रकार अपर्याप्त-सूत्रका भी स्पष्टीकरण करना चाहिये और इसीप्रकार पर्याप्त-सूत्रका भी व्याख्यान करना चाहिये। इतना विशेष है कि सूच्यंगुलके संख्यातवें भागके वर्गित करने पर
. १ द्वीन्द्रियात्रीन्द्रियाश्चतुरिन्द्रिया असंख्येयाः श्रेणयः प्रतरासंख्येयभागप्रमिताः । स. सि. १, ८. पज्जत्तापज्जता वितिचउ xx अवहरंति । अंगुलसंख x x पएसभइयं पुढो पयरं ॥ पश्चसं. २, १२..
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