Book Title: Shatkhandagama Pustak 03
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
४२६ ]
कालो वुच्चदे
छक्खागमे जीवाणं
चउकसाइगुणपडिवण्णपमाणमकसाइपमाणं च चदुकसाइमिच्छाइट्ठिरासिभजिदतव्वग्गं च सव्वजीवरासिस्सुवरि पक्खित्ते चदुक्कसाइधुवरासी होदि । तं चदुहि गुणिदे कसायरासिचदुब्भागस्स भागहारो होदि । पुणो तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभागेण भागे हिदे लं तम्हि चेव पक्खि माणकसाइधुवरासी होदि । पुव्वभागहारमब्भहियं काऊण कसायचउभागभागहाररासिम्हि भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते को धकसाइधुवरासी होदि । पुणो कोधक साइभागहारमब्भहियं काऊण पुव्विल्लधुवरासिम्हि भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव पक्खिते मायकसाइधुवरासी होदि । कसायचउब्भागधुवरासिमावलियाए असंखेज्जदिभाएण खंडिय लद्धं तम्हि चे अवणिदे लोभकसाइधुवरासी होदि । एदेहि अवहारकालेहि सव्वजीवरासिस्सुवरिमवग्गे भागे हिदे सग-सगरासीओ आगच्छति । तिन्हं कसायमिच्छाइट्ठीणं पमाणं सव्वजीवरासिस्स चउब्भागो देणो । लोभकसाइमिच्छाइट्ठिपमाणं चदुब्भागो सादिरेगो | गुणपडिवण्णेसु देवरासी पहाणो । कुदो ? सेसमदिरासिस्स तदसंखेज्जदि
[ १, २, १३५०
गुणित करने पर अपनी अपनी राशियां होती हैं । इस अर्थपदको समझकर चार कषायपाली मिथ्यादृष्टिराशिका अवहारकाल कहते हैं
Jain Education International
गुणस्थानप्रतिपन्न चारों कषायवाले जीवोंके प्रमाणको और कषाय रहित जीवोंके प्रमाणको तथा चारों कषायवाले मिथ्यादृष्टियोंके प्रमाणसे भक्त पूर्वोक्त दोनों राशियों के वर्गको सर्व जीवराशिके ऊपर प्रक्षिप्त करने पर चारों कषायवाले जीवोंकी ध्रुवराशि होती है । उसे चारसे गुणित करने पर कषायराशिके चौथे भागका भागद्दार होता है । पुनः इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे उसीमें मिला देने पर मानकषायवाले जीवोंकी ध्रुवराशि होती है । पुनः इस भागहारको अभ्यधिक करके उसका कषायराशिके चौथे भागकी भागहारराशिमें भाग देने पर जो लब्ध आवे उसे उसी भागद्दारराशिमें मिला देने पर क्रोधकषायवाले जीवोंकी ध्रुवराशि होती है । पुनः क्रोधकषाय के भागहारको अभ्यधिक करके उसका पूर्वोक्त ध्रुवराशिमें भाग देने पर जो लब्ध भावे उसे उसी ध्रुवराशिमें मिला देने पर मायाकषायवाले जीवों की ध्रुवराशि होती है । कषायराशिके चौथे भागकी ध्रुवराशिको (भागहारको) आवलीके असंख्यातवें भागसे खंडित करके जो लब्ध आवे उसे उसी ध्रुवराशिमेंसे निकाल लेने पर लोभकषाय जीवोंकी ध्रुवराशि होती है । इन हारकालोंसे सर्व जीवराशिके उपरिम वर्गके भाजित करने पर अपनी अपनी राशियां आती हैं । क्रोध, मान, और माया, इन तीनों कषायवाले मिध्यादृष्टियोंका पृथक् पृथक् प्रमाण सर्व जीवराशिका कुछ कम चौथा भाग है । लोभकषायवाले मिथ्यादृष्टि जीवोंका प्रमाण कुछ अधिक चौथा भाग है । गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंमें देवराशि प्रधान है, क्योंकि, शेष तीन गतियोंकी गुणस्थानप्रतिपन्न जीवराशि गुणस्थानप्रतिपन्न देवराशिके असंख्यातवें भाग है ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org