Book Title: Shatkhandagama Pustak 03
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, २, १०१.]
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संखेज्जरूवेहि गुणिदे सग-सगसासणसम्माइट्ठिअवहारकालो होदि । तेसु आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदेसु तेउ - पम्म लेस्सिय सजदासंजद अवहारकालो होदि । वरि सुक्कलेस्सिय असंजदसम्माइट्ठिअवहारकाले संखेज्जरूवेहि गुणिदे सुक्कमिच्छाइ द्विअवहार कालो होदि । तहि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे सम्मामिच्छाइट्ठिअवहारकालो होदि । तह संखेज्जरूहि गुणिदे सुक्कलेस्सियसा सणसम्माइद्विअवहारकालो होदि । तम्हि आव लियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे सुक्कलेस्सिय संजदासंजदअवहारकालो होदि । सग-सगअवहारकाले पलिदोवमे भागे हिदे सग-सगरासिणो हवंति ।
दम्पमाणानुगमे लेस्सामग्गणापमाणपरूवणं
पमत्त - अप्पमत्तसंजदा दव्वपमाणेण केवडिया, संखेज्जा' ॥ १७० ॥ दे दो विरासिणो ओघपमाणं ण पावेंति, तेउ-पम्म सुक्कलेस्सासु अक्कमेण विहजिय दत्तादो | सेसं सुझं ।
अपुव्वकरणपहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥ १७१ ॥
संख्यातसे गुणित करने पर अपने अपने सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है । इन्हें अर्थात् तेजोलेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालोंको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर तेजोलेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले संयतासंयतोंके अवहारकाल होते हैं । इतना विशेष है कि शुक्ललेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालको संख्यातसे गुणित करने पर शुक्ललेश्यावाले मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर शुक्ललेश्यावाले सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल होता है । इसे संख्यातसे गुणित करने पर शुक्ललेश्या वाले सासादन सम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है । इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर शुकुलेश्यावाले संयतासंयतों का अवहारकाल होता है । इस अपने अपने अवहारकालसे पल्योपमके भाजित करने पर अपनी अपनी राशिका प्रमाण आता है ।
शुक्लेश्यावाले प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? संख्यात हैं ॥ १७० ॥
शुक्ललेश्यासे युक्त प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत ये दोनों राशियां अघप्रमाणको प्राप्त नहीं होती हैं, क्योंकि, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें जीव तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्यामें युगपत् विभक्त होकर स्थित हैं। शेष कथन सुग्राह्य है ।
शुक्ललेश्यावाले जीव अपूर्वकरण गुणस्थान से लेकर सयोगिकेवली गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थान में ओघप्ररूपणा के समान हैं ।। १७१ ॥
१ प्रमत्ताप्रमत्तसंयताः संख्येयाः स. सि. १,८.
२ अपूर्वकरणादयः सयोग केवल्यन्ताः अलेश्याश्च सामान्योकसंख्याः । स. सि. १,८.
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