Book Title: Shatkhandagama Pustak 03
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२, १, १५७. ]
दव्यमाणानुगमे दंसणमग्गणापमाणपरूवणं
[ ४५३
सण वादे चक्खुदंसणीसु मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, असंखेज्जा ॥ १५५ ॥
सुगममेदं सुतं, बहुसो वक्खाणिदत्तादो । असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि उस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण ॥ १५६ ॥
अइथूल-धूल- मुहुमपरूवणाओ तिष्णि वि परिवाडीए किमडुं वुच्चति, सुदुमपरूवणमेव किण बुच्चदे ? ण, महावि-मंदाइमंदमे हा विजणाणुग्गहकारणेण तहोवएसा । सेसं सुगमं । खेतेण चक्खुदंसणीसु मिच्छाइट्ठीहि पदरमवहिदि अंगुलस्स संखेज्जदिभागवग्गपडिभाए ॥ १५७ ॥
संखेज्जरूवेहि सूचिअंगुले भागे हिदे तत्थ जं लद्धं तं वग्गिदे चक्खुदंसणिमिच्छाइट्ठी पडिभागो होदि । एदेण पडिभागेण चक्खुदंसणिमिच्छाइट्ठीहि जगपदरमवहिरदि । एत्थ किं चक्खुदंसणावरणकम्मक्खओवसमा जीवा चक्खुदंसणिणो वुच्चंति, आहो चक्खु
दर्शनमार्गणा के अनुवाद से चक्षुदर्शनी जीवों में मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं ।। १५५ ॥
यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, अनेकवार व्याख्यान हो गया है ।
कालकी अपेक्षा चक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टि जीव असंख्याता संख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके द्वारा अपहृत होते हैं ॥ १५६ ॥
शंका - अतिस्थूल, स्थूल और सूक्ष्म, ये तीनों प्ररूपणाएं परिपाटीक्रमसे किसलिये कही जाती हैं, केवल एक सूक्ष्म प्ररूपणा क्यों नहीं कही जाती है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, मेधावी, मन्दबुद्धि और अतिमन्दबुद्धि जनोंका अनुग्रह करने के कारण इस प्रकारका उपदेश दिया गया है । शेष कथन सुगम है ।
क्षेत्रकी अपेक्षा चक्षुदर्शनियों में मिथ्यादृष्टि जीवों के द्वारा सूच्यंगुल के संख्यातवें भाग वर्गरूप प्रतिभागसे जगप्रतर अपहृत होता हैं ।। १५७ ।।
सूच्यंगुल में संख्यातका भाग देने पर वहां जो लब्ध आवे उसे वर्गित करने पर दर्शनी मिथ्यादृष्टि जीवोंका प्रतिभाग होता है । इस प्रतिभागसे चक्षुदर्शनी मिध्यादृष्टि जीवोंके द्वारा जगप्रतर अपहृत होता है ।
शंका- यहां पर क्या चक्षुदर्शनावरणकर्मके क्षयोपशमसे युक्त जीव चक्षुदर्शनी कहे जाते हैं, या चक्षुदर्शनरूप उपयोग से युक्त जीव चक्षुदर्शनी कहे जाते हैं ? इनमेंसे प्रथम १ दर्शनानुषादेन चक्षुर्दर्शनिनो मिथ्याष्टष्टयोऽसंख्येयाः श्रेणयः प्रतरासंख्येयभाग प्रमिताः । स. सि. १,८० मोगे चउरक्खाणं पंचक्खाणं च खीणचरिमाणं चक्खूणं । गो. जी. ४८७.
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