Book Title: Shatkhandagama Pustak 03
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 549
________________ ४५६ ] छक्खंडागमे जीवाणं .. [ १, २, १६१ ओहिदसणविरहिदओहिणाणीणमभावादो । एत्थ अवहारकालो वुच्चदे । जो ओघअसंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो सो चेव अचक्खुदंसणि-चक्खुदंसणिअसंजदसम्माइटिअवहारकालो होदि। तम्हि आवलियाए असंखेजदिभाएण भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते ओहिदंसणिअसंजदसम्माइद्विअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे चक्खुदंसणि-अचक्खुदंसणिसम्मामिच्छाइडिअवहारकालो होदि । तम्हि संखेजरूवेहि गुणिदे चक्खुदंसणि-अचक्खुदंसणिसासणसम्माइडिअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेजदिभाएण गुणिदे चक्खुदंसणि-अचक्खुदंसणिसंजदासंजदअवहारकालो होदि। तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभागेण गुणिदे ओहिदंसणिसंजदासंजदअवहारकालो होदि।। केवलदसणी केवलणाणिभंगों ॥ १६१ ॥ केवलणाणविरहिदकेवलदसणाभावादो । सुद-मणपज्जवणाणाणं किमिदि ण दंसणं ? वुच्चद- ण ताव सुदणाणस्स दंसणमत्थि, तस्स मदिणाणपुव्वत्तादो । ण मणपज्जव चूंकि अवधिदर्शनको छोड़कर अवधिज्ञानी जीव नहीं पाये जाते हैं, इसलिये दोनोंका प्रमाण समान है। अब यहां पर इनके अवहारकालका कथन करते है-जो ओघ असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल है, वही अचक्षुदर्शनी और चक्षुदर्शनी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल है। इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे उसी अवहारकालमें मिला देने पर अवधिदर्शनी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इस अवधिदर्शनी असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर चक्षदर्शनी और अचक्षदर्शनी सम्यग्मिथ्याटियोंका अवहारकाल होता है। इसे संख्यातसे गुणित करने पर चक्षदर्शनी और अचादर्शनी सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर चक्षुदर्शनी और अचक्षु. दर्शनी संयतासंयतोंका अवहारकाल होता है। इसे आवलोके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर अवधिदर्शनी संयतासंयतोंका अवहारकाल होता है। केवलदर्शनी जीव केवलज्ञानियोंके समान हैं ॥ १६१॥ चूंकि केवलज्ञानसे रहित केवलदर्शन नहीं पाया जाता है, इसलिये दोनों राशियोंका प्रमाण समान है। - शंका-श्रुतज्ञान और मनःपर्ययज्ञान का दर्शन क्यों नहीं कहा जाता है ? समाधान-श्रुतज्ञानका दर्शन तो हो नहीं सकता है, क्योंकि, वह मतिज्ञानपूर्वक होता है। उसीप्रकार मनःपर्ययज्ञानका भी दर्शन नहीं है, क्योंकि, मनःपर्ययज्ञान भी उसीप्रकारका है, अर्थात् मनःपर्ययशान भी मतिज्ञानपूर्वक होता है, इसलिये उसका दर्शन नहीं पाया जाता है। १ केवलदर्शनिनः केवलज्ञानिवत् । स. सि. १, ८. ओहिकेवलपरिमाण ताण जाणं च । गो. जी. ४८७. २ प्रतिषु 'सुद-मणपज्जवणागं ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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