Book Title: Shatkhandagama Pustak 03
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
१, २, १३५.] दव्वपमाणाणुगमे कसायमग्गणापमाणपरूवणं [१२५ भागत्तणेण च मिच्छाइट्ठी गुणपडिवण्णा च ओघमिच्छाइट्ठि-गुणपडिवण्णेहि समाणा त्ति कह सुत्ते एदेसि परूवणा ओघमिदि वुत्ता। पज्जवट्ठियणए पुण अवलंबिज्जमाणे अस्थि विसेसो। तं कधं ? चदुकसायमिच्छाइट्ठीसु तिरिक्खरासी पहाणो, सेसगदिरासिस्स तदर्णतभागत्तादो। तत्थ वि चदुकसायमिच्छाइट्ठिरासी ण' अण्णोण्णेण समाणो । कुदो ? तदद्धाणं सारिच्छाभावा । तं जहा
तिरिक्ख-मणुसेसु सव्वत्थोवा माणद्धा । कोधद्धा विसेसाहिया। केत्तियमेत्तेण ? आवलियाए असंखेजदिभागमेत्तेण । मायद्धा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तो विसेसो ? पुन्छ परूंविदो । लोभद्धा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तो विसेसो? आवलियाए असंखेजदिभागमेत्तो। ण च अद्धासु असरिसासु तत्थ द्विदरासीणं समाणणिग्गम-पवेसाणं संताणं पडि गंगाप: वाहो व्व अवट्ठिदाणं सरिसत्तं जुञ्जदे । तदो चउण्हमद्धाणं समासं काऊण चदुकसाइमिच्छाइट्ठिरासिम्हि भागे हिदे लद्धं चउप्पडिरासिं करिय माणादीणमद्धाहि पडिवाडीए गुणिदे सग-सगरासीओ भवंति । एदमट्ठपदं काऊण चदुकसाइमिच्छाइद्विस्स रासिस्स अवहार
गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंके समान हैं, ऐसा समझकर सूत्र में क्रोधादि कषाययुक्त ओघ मिथ्याष्टि और ओघ गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंकी प्ररूपणा ओघप्ररूपणाके समान है, यह कहा। परंतु पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करने पर विशेषता है ही।
शंका-वह विशेषता कैसे है ?
समाधान-चारों कषायवाले मिथ्यादृष्टि जीवों में तिर्यंचराशि प्रधान है, क्योंकि, शेष तीन गतिसंबन्धी जीवराशि तिर्यचराशिके अनन्तवें भाग है। उसमें भी चारों कषायवाली मिथ्यादृष्टिराशि परस्पर समान नहीं है, क्योंकि, चारों कषायोंका काल समान नहीं हैं। उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है-तिर्यंच और मनुष्यों में मानका काल सबसे स्तोक है। क्रोधका काल मानकालसे विशेष अधिक है। कितनेमात्र विशेषसे अधिक है ? आवलीके मसख्यातवें भागमात्र विशेषसे अधिक है। मायाका काल क्रोधके कालसे विशेष अधिक है। कितनामात्र विशेष है? पहले प्ररूपण कर दिया है, अर्थात् आवलीका असंख्यातवां भाग विशेष है। लोभका काल मायाके कालसे विशेष अधिक है। कितनामात्र विशेष है? आवलीका असंख्यातवां भागप्रमाण विशेष अधिक है। इसप्रकार कालोंके विसदृश रहने पर जिनका निर्गम और प्रवेश समान है और संतानकी अपेक्षा गंगानदीके प्रवाहके समान जो अवस्थित है, ऐसी वहां स्थित उन राशियों की सदृशता नहीं बन सकती है। तदनन्तर चारों कषायोंके कालोंका योग करके उसका चारों कषायवाली मिथ्यादृष्टिराशिमें भाग देने पर जो लब्ध आवे उसकी चार प्रतिराशियां करके मानादिकके कालोंसे परिपाटीकमसे
१ प्रतिषु णं' इति पाठः।
२णरतिरियलोममायाकोही माणो विइंदियादिव । आवलिअसंखभज्जा सगकालं व समासेज ॥ गो. जी. १९८०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org