Book Title: Shatkhandagama Pustak 03
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, २, १०५.] दव्वपमाणाणुगमे जोगमगणापमाणपरूवणं
[ ३८७ जोगद्धप्पाबहुगादो। तं जहा- 'सव्वत्थोवा मणजोगद्धा । वचिजोगद्धा संखेज्जगुणा । कायजोगद्धा संखेज्जगुणा ति ।' पुणो एदेसिमद्धाणं समास काऊण तेण तिण्हं जोगाणं सण्णिरासिमोवट्टिय अप्पप्पणो अद्धाहि पुध पुध गुणिदे मण-वचि-कायजोगरासीओ हवंति । तदो हिदमेदं एदे अट्ट वि मिच्छाइहिरासीओ देवाणं संखेजदिभागो त्ति ।
सासणसम्मादिटिप्पहुडि जाव संजदासंजदा ति ओघं ॥१०४॥
पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागत्तं पडि ओघजीवेहि सह एदेसिं समाणत्तमत्थि त्ति ओघमिदि उत्तं । पज्जवट्ठियणए पुण अवलंबिज्जमाणे तेहिंतो एदेसि अत्थि महतो भेदो। कुदो ? एदेसिमोघसिस्स संखेज्जदिभागत्तादो। तं पि कधं णव्वदे ? पुव्वुत्तद्धप्पाबहुगादो । सेसं सुगमं ।
पमत्तसंजदप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति दव्वपमाणेण केवडिया, संखेज्जा ॥ १०५॥
समाधान-योगकालके अल्पबहुत्वसे यह जाना जाता है । वह इसप्रकार है'मनोयोगका काल सबसे स्तोक है। वचनयोगका काल उससे संख्यातगुणा है । काययोगका काल वचनयोगके कालसे संख्यातगुणा है।' अनन्तर इन कालोंका जोड़ करके जो फल हो उससे तीनों योगोंकी संशी जीवराशिको अपवर्तित करके जो लध्ध आवे उसे अपने अपने कालसे पृथक् पृथक् गुणित करने पर मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी जीवराशि होती है। इसलिये यह निश्चित हुआ कि ये आठ ही मिथ्यादृष्टि जीवराशियां देवोंके संख्यातवें भाग हैं।
सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर संयतासंयत गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानमें पूर्वोक्त आठ योगवाले जीवोंका प्रमाण सामान्य प्ररूपणाके समान पत्योपमके असंख्यातवें भाग है ॥ १०४॥
पल्योपमके असंख्यातवें भागके प्रति ओघ जीवोंके साथ इन आठ जीधराशियोंकी समानता है, इसलिये सूत्र में ' ओघ' ऐसा कहा। परंतु पर्यायार्थिक नयका अवलंबन करने पर तो सासादनादि संयतासंयतान्त गुणस्थानप्रतिपन्न ओघप्ररूपणासे गुणस्थानप्रतिपन्न इन आठ राशियों में महान् भेद है, क्योंकि, ये राशियां ओघराशिके संख्यातवें भाग हैं।
शंका-यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-पूर्वोक्त योगकालके अल्पबहुत्वसे यह जाना जाता है। शेष कथन सुगम है।
प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर सयोगिकेवली गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानमै १ प्रतिषु · जोगवदप्पा' इति पाठः ।
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