Book Title: Shatkhandagama Pustak 03
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४२० ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, २, १३२
दव्त्रयिणयं पडुच्च उवसंतकसायस्स वि उवसामगववएस पडि विरोहाभावाद । एत्थ पवेसविधी उवसमसेढिपवेसणेण तुल्ला । एदेण खवगअवगदवेदपवेसो वि खवगढ - पवेसेण तुल्लो त्ति जाणाविदं । कुदो ? खवगअवगदवेदपवेसं पडि पुध सुत्तारं भाभावादो । अद्धं पहुच संखेज्जा ॥ १३२ ॥
एत्थ संखेज्जा त्तिण भणिय ओघमिदि वत्तव्यं ? ण, अवलंबियपज्जयत्तादो । से सुगमं ।
तिणि खवा अजोगिकेवली ओघं ॥ १३३ ॥
ओघादो एदेसिं पमाणं पडि विसेसाभावा ओघतं जुज्जदे ।
शंका-उपशान्तकषाय जीवको उपशामक संज्ञा कैसे प्राप्त हो सकती है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा उपशान्तकषाय जीवके भी उपशामक इस संज्ञा के प्रति कोई विरोध नहीं आता है ।
यहां अपगतवेदस्थान में प्रवेशविधि उपशमश्रेणीसंबन्धी प्रवेशविधिके समान है । इसी कथनसे क्षपक अपगतवेदियों का प्रवेश भी क्षपकश्रेणीसंबन्धी प्रवेशके समान है, इसका ज्ञान करा दिया, क्योंकि, क्षपक अपगतवेदियों के प्रवेशके प्रति पृथक्रूपसे सूत्रका आरंभ नहीं पाया जाता है ।
विशेषार्थ -- जिसप्रकार उपशमश्रेणी के प्रत्येक गुणस्थान में सामान्यसे जघन्य एक और उत्कृष्ट चौवन जीव प्रवेश करते हैं, और विशेषरूप से पहले आदि समय में एक जीवसे लेकर सोलह आदि जीवतक प्रवेश करते हैं; तथा क्षपकश्रेणी में सामान्यसे जधन्य एक और उत्कृष्ट एकसौ आठ जीव प्रवेश करते हैं, और विशेषरूपसे पहले आदि समयमें एक जीवसे लेकर बत्तीस आदि जीव प्रवेश करते हैं; वही नियम यहां अपगतवेदियोंके लिये भी प्रवेशकी अपेक्षा समझना चाहिये ।
कालकी अपेक्षा अपगतवेदी उपशामक संख्यात हैं ।। १३२ ।।
शंका- - इस सूत्र में ' संख्यात हैं ' इसप्रकार न कहकर ' ओघप्ररूपणाके समान है ' ऐसा कहना चाहिये ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, यहां पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन लिया है । शेष कथन सुगम है ।
अपगतवेदियों में तीन गुणस्थानवर्ती क्षपक और अयोगिकेवली जीव ओघप्ररूपणा के समान हैं ॥ १३३ ॥
ओघ से इन तीन गुणस्थानवर्ती क्षपक और अयोगिकेवलियों के प्रमाणके प्रति कोई विशेषता नहीं है, इसलिये ओघपना बन जाता है ।
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