Book Title: Shatkhandagama Pustak 03
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३१६ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, २, ८२.
पक्खित्ते तेइंदियअवहारकालो होदि । पुणो तम्हि चेव आवलियाए असंखेजदिभाएण भागे हिदे जं लद्धं तं तम्हि चेव पक्खिते तेइंदियअपज्जत्ताणमवहारकालो होदि । एवं चउरिंदि - चउरिंदियअपज्जत्त-पंचिंदिय-पंचिदियअपज्जत्ताणं जहाकमेण आवलियाए असंखेजदिभाएण खंडिदेयखंडेण अवहारकाला अन्भहिया कायव्वा । तदो पंचिंदिय अपज्जत्तअवहारकाले आवलियाए असंखेजदिभाएण गुणिदे पदरंगुलस्स संखेजदिभागे। तेईदियपज्जत्ताणं अवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण भागे हिदे लद्धं तम्हि चैव पक्खित्ते वेइंदियपज्जत्ताणमवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण भागे हिदे लद्धं तम्हि चैव पक्खिते पंचिंदियपज्जत्ताणमवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेजदिभाएण भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते चउरिंदियपज्जत्तअवहारकालो होदि । एत्थ सव्वत्थ रासिविसेसेण रासिमोवट्टाविय लद्धं रूवणं करिय भागहारभूदआवलियाए असंखेज्जदिभागो उप्पादव्वो । एदेहि अवहारकाले हि पुध पुध जगपदरे भागे हिदे अष्पष्पणो दव्त्रपमाणाणि भवति । एत्थ खंडिदादओ जाणिऊण वत्तव्या ।
करने पर जो लब्ध आवे उसे उसी द्वीन्द्रिय अपर्याप्त अवहारकालमें मिला देने पर त्रीन्द्रिय जीवोंका अवहारकाल होता है । पुनः इस त्रीन्द्रिय जीवोंके अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे उसी त्रीन्द्रिय जीवोंके अवहारकाल में मिला देने पर त्रीन्द्रिय अपर्याप्तकोंका अवहारकाल होता है । इसीप्रकार चतुरिन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त, पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके अवहारकालको क्रमसे आवलीके असंख्यातवें भागसे खंडित करके उत्तरोत्तर एक एक भागसे अधिक करना चाहिये । अनन्तर पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर प्रतरांगुलके संख्यातवें भागप्रमाण श्रीन्दिय पर्याप्त जीवोंका अवहारकाल होता है । इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे उसी त्रीन्द्रिय पर्याप्तकों के भवहारकालमें मिला देने पर द्वीन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका अवहारकाल होता है । इस द्वीन्द्रिय पर्याप्तकों के अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे उसी द्वीन्द्रिय पर्याप्त अवहारकालमें मिला देने पर पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका अवहार • काल होता है । इस पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भाग भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे इसी पंचेन्द्रिय पर्याप्त अवहारकालमें मिला देने पर चतुरिन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका अवहारकाल होता है । यहां सर्वत्र राशि विशेष से राशिको अपवर्तित करके जो लब्ध आवे उसमेंसे एक कम करके भागद्दाररूप आवलीका असंख्यातवें भाग उत्पन्न कर लेना चाहिये । इन अवहारकालोंसे पृथक् पृथक् जगप्रतर के भाजित करने पर अपने अपने द्रव्यका प्रमाण आता है । यहां पर खंडित आदिकका कथन समझ कर करना चाहिये ।
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