Book Title: Shatkhandagama Pustak 03
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, २, ८५.] दव्वपमाणाणुगमे वेइंदियादिपमाणपरूवणं
[३१७ सासणसम्माइटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ओघ ॥८३॥
पहुडिसहो किरियाविसेसणं । सासणसम्माइट्टिप्पहुडि आई करिएत्ति । एत्थ पुन्वसुत्तादो पंचिंदिय इदि अणुवट्टदे । तेण सव्वे गुणपडिवण्णा पंचिंदिया चेव । सजोगिअजोगिकेवलीणं पणट्ठासेसिंदियाणं पंचिंदियववएसो कधं घडदे ? ण, पंचिंदियजादिणामकम्मोदयमवेक्खिय तेसिं पंचिंदियववएसादो। एदेसिं पमाणपरूवणा मूलोघपरूवणाए तुल्ला । कुदो ? पंचिदियवदिरित्तजादीसु गुणपडिवण्णाभावाद।।
पंचिंदियअपज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया, असंखेज्जा ॥८४ ॥ एदस्स सुत्तस्स सुगमो अत्यो ।
असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिति कालेण ॥८५॥
एदस्स वि अत्थो सुगमे।।
सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानमें पंचेन्द्रिय और पंचेद्रिय पर्याप्त जीव सामान्य प्ररूपणाके समान पल्योपमके असंख्यतवें भाग हैं ॥ ८३॥
__ यहां पर प्रभृति शब्द क्रियाविशेषण है। जिससे सासादनसम्यग्दृष्टि प्रभृतिका अर्थ सासादनसम्याग्दृष्टिको आदि लेकर होता है। यहां पर पूर्व सूत्रसे पंचेन्द्रिय पदकी अनुवृत्ति होती है, इसलिये संपूर्ण गुणस्थानप्रतिपन्न जीव पंचेन्द्रिय ही होते हैं, यह अभिप्राय निकल आता है।
शंका-सयोगिकेवली और अयोगिकेवलियोंके संपूर्ण इन्द्रियां नष्ट हो गई हैं, अतएव उनके पंचेन्द्रिय यह संज्ञा कैसे घटित होती है ?
समाधान - नहीं, क्योंकि, पंचेन्द्रियजाति नामकर्मकी अपेक्षा सयोगिकेवली और अयोगिकेवलियोंके पंचेन्द्रिय संशा बन जाती है।
इन गुणस्थानप्रतिपन्न पंचेन्द्रिय जीवों के प्रमाणकी प्ररूपणा मूलोध प्ररूपणाके समान है, क्योंकि, पंचेन्द्रियजातिको छोड़कर दूसरी जातियों में गुणस्थानप्रतिपन्न जीव नहीं पाये जाते हैं।
पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं ।। ८४॥ इस सूत्रका अर्थ सुगम है।
कालकी अपेक्षा पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीव असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके द्वारा अपहृत होते हैं ॥ ८५॥
इस सूत्रका भी अर्थ सुगम है। १ सासादनसम्यग्दृष्टयादयोऽयोगकेवल्यन्ता: सामान्योक्तसंख्याः । स. सि. १,८,
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