Book Title: Shatkhandagama Pustak 03
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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छक्खंडागमे जीवाणं
[१, २, ८७. दुरूवूशुक्कस्ससंखेज्जमेत्तलोगसलागासु दुरूवाहियलोगम्हि पविट्ठासु चत्तारि वि असंखेजा लोमा हवंति । एवं णेयव्वं जाव विदियवारद्वविदसलागरासी समत्तो त्ति । ताधे वि चत्तारि वि असंखेजा लोगा। पुणो उद्विदरासि सलागभूदं ठविय अवरेगमुट्ठिदमहारासिपमाणं विरलेउन उद्विदमहाससिपमाणमेव रूवं पडि दाऊण वग्गिदसंवग्गिदं करिय सलागरासीदो एगं रूवमवणेयव्वं । ताधे चत्तारि वि असंखेज्जा लोगा। एवमेदेण कमेण णेदव्वं जाव तदियवारं ठवियसलागरासी समत्तो त्ति । ताधे चत्तारि वि असंखेजा लोगा। पुणो उद्विदमहारासिं तिप्पडिरासिं काऊण तत्थेगं सलागभूदं दृविय अण्णेगरासि विरलेऊण तत्थ एक्केक्कस्स रूपस्स एगससिपमाणं दाऊण वग्गिदसंवग्गिदं करिय सलागरासीदो एगरूवमवणेयव्वं । एवं पुणो पुणो करिय णेय जाव अदिक्कंतअण्णोण्णगुणगारसलागाहि ऊणचउत्थवारहिदअण्णोण्णगुणगारसलागरासी समत्तो ति । ताधे तेउकाइयरासी उडिदो हवदि । तस्स
होती हैं। इसप्रकार इसी क्रमसे दो कम उत्कृष्ट संख्यातमात्र लोकप्रमाण अन्योन्य गुणकार शलाकायोंके दो अधिक लोकप्रमाण अन्योन्य गुणकार शलाकाओं में प्रविष्ट होने पर चारों राशियां मी असंख्यात लोकप्रमाण होती हैं। इसीप्रकार दूसरीवार स्थापित शलाकाराशि समाप्त होनेतक इसी क्रमसे ले जाना चाहिये। तब भी चारों भी राशियां असंख्यात लोकप्रमाण होती हैं। पुनः अन्तमें उत्पन्न हुई महाराशिको शलाकारूपसे स्थापित करके और दूसरी उसी उत्पन्न हुई महाराशिके प्रमाणको विरलित करके और उत्पन्न हुई उसी महाराशिके प्रमाणको घिरालित राशिके प्रत्येक एकके प्रति देयरूपसे देकर परस्पर वर्गितसंवर्गित करके शलाकाराशिसे एक कम कर देना चाहिये । तब भी चारों राशियां असंख्यात लोकप्रमाण होती हैं। इसीप्रकार तीसरीवार स्थापित शलाकाराशि समाप्त होनेतक इसी क्रमसे ले जाना चाहिये। तब भी चायें राशियां असंख्यात लोकप्रमाण हैं। पुनः अन्तमें इस उत्पन्न दुई महाराशिको तीन प्रतिराशिरूप करके उनमेंसे एक राशिको शलाकारूपसे स्थापित करके, दूसरी एक राशिको विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति एक राशिके प्रमाणको व्यरूपसे देकर परस्पर वर्गितसंवर्गित करके शलाकाराशिमेंसे एक कम कर देना चाहिये। इसप्रकार पुनः पुनः करके तब तक ले जाना चाहिये जब तक कि अतिक्रान्त शलाकाओंसे अर्थात् पहली दूसरी और तीसरीवार स्थापित अन्योन्य गुणकार शलाकाओंसे न्यून चौथीवार स्थापित अन्योन्य गुणकार शलाकाराशि समाप्त होती है। तब तेजस्कायिक
एवं प्रथम-द्वितीय-तृतीयवारस्थापितशलाकाराशिन्यूनचतुर्थवारस्थापितशलाकाराशिपरिसमाप्तौ सत्या तत्रोत्पनमहाराशिः तेजस्कायिकजीवराशेः प्रमाणं भवति । गो. जी, जी.प्र; टी. २०४. पुनःतत्रोत्पन्नमहाराशिः प्राग्वत् त्रिप्रतिकं कृत्वा अतीतगुणकारशलाकाराशित्रयहीनोऽयं चतुर्थवारस्थापितशलाकाराशिनिष्ठाप्यते । गो. जी., जी. प्र., टी. पृ. २८४, (पर्याप्ति अधिकार ).
२ ति. प. पत्र १८२. गो. जी. पृ, २८२-२८४.
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