Book Title: Shatkhandagama Pustak 03
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
१, २, ६३.] दव्वपमाणाणुगमे देवगदिपमाणपरूवणं
[२७३ सयवग्गपडिभागो वाणवेंतरमिच्छाइट्ठिदव्वपमाणं होदि । पडिभागो इदि किं वुत्तं हवदि ? संखेज्जजोयणसयवग्गमेत्तजगपदरस्स भागेसु एगभागो पडिभागो णाम । पडिभागसद्दो भागहारम्मि वट्टमाणो कज्जे कारणोवयारेण लद्धम्मि वट्टदि त्ति घेत्तव्वं । एत्थ पढमाए विहत्तीए अढे तदिया दट्टया । अहवा एस णिदेसो पढमाविहत्ती चेव जहा हवदि तहा साहेयव्यो । संखेजजोयणेत्ति वुत्ते तिण्णिजोयणसयमंगुलं काऊण वग्गिदे जो उप्पज्जदि रासी सो घेत्तव्यो । तस्स पमाणं पंच कोडाकोडिसयाणि तीसकोडाकोडीओ चउरासीदिकोडिसयसहस्साणि सोलसकोडिसहस्साणि च भवदि । जदि जोणिणीणमवहारकालो तप्पाओग्गसंखेज्जरूवगुणिदछज्जोयणसयमंगुलवग्गमेत्तो हवदि तो वाणवेंतरमिच्छाइट्ठीणं पि अवहारकालो एत्तियपदरंगुलमेत्तो हवदि । अध जदि पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीमिच्छाइट्ठीणमवहारकालो छज्जोयणसयअंगुलवग्गमेत्तो चेव तो वाणवेंतरमिच्छाइडिअवहारकालेण' तिण्णिजोयणसयंगुलवग्गस्स संखेजदिभाएण होदव्वं, अण्णहा अप्पाबहुगसुत्तेण सह विरोहादो । एदेण अवहारकालेण जगपदरे भागे हिदे
इसका यह तात्पर्य हुआ कि जगप्रतरमें संख्यातसौ योजनोंके वर्गका भाग देने पर जो प्रतिभाग आवे उतना वाणव्यन्तर मिथ्यादृष्टि देवोंका प्रमाण है।
शंका-प्रतिभाग इस पदसे यहां क्या कहा गया है ?
समाधान - संख्यातसौ योजनोंके वर्गका जितना प्रमाण हो उतने जगप्रतरके भाग करने पर उनमेंसे एक भागरूप प्रतिभाग है। अर्थात् प्रतिभाग शब्दसे यहां लब्धरूप अर्थ लिया गया है। यद्यपि प्रतिभाग शब्द भागहाररूप अर्थमें रहता है तो भी कार्यमें कारणके उपचारसे यहां लब्धमें उसका ग्रहण करना चाहिये।
यहां प्रथमा विभाक्तिके अर्थमें तृतीया विभाक्ति जानना चाहिये । अथवा, '-पडिभापण' यह निर्देश प्रथमा विभक्तिरूप जिसप्रकार होवे उसप्रकार सिद्ध कर लेना चाहिये। सूत्रमें 'संख्यात योजन' ऐसा कहने पर तीनसौ योजनोंके अंगुल करके वर्गित करने पर जो राशि उत्पन्न हो वह राशि लेना चाहिये। उन अंगुलोंका प्रमाण पांचसौ कोडाकोड़ी, तीस कोड़ाकोड़ी, चौरासी लाख कोड़ी और सोलह हजार कोड़ी ५३०८४१६०००००००००० है। यदि तिर्यंच योनिमतियोंका अवहारकाल तद्योग्य संख्यात गुणित छहसौ योजनोंके अंगुलोका वर्गमात्र हो तो वाणव्यन्तर मिथ्यादृष्टियोंका भी अवहारकाल इतने अर्थात् तीनसौ योजनोंके अंगुलोंके वर्गरूप प्रतरांगुलप्रमाण हो सकता है। और यदि पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमती मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल छहसौ योजनोंके अंगुलोंके वर्गमात्र ही है तो वाणव्यन्तर मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल तीनसौ योजनोंके किये गये अंगुलोंके वर्गके संख्यातवें भाग होना चाहिये, अन्यथा अल्पबहुत्वके सूत्रके साथ इस कथनका विरोध आता है।
१ प्रतिषु ' अवहारकालो ' इति पाठः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org