Book Title: Shatkhandagama Pustak 03
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२७०) छक्खडागमे जीवहाणं
[१, २, ५७. खेजदिभाएण गुणिदे देवसम्मामिच्छाइटिअवहारकालो होदि । तं संखेज्जरूवेहि गुणिदे देवसासणसम्माइटिअवहारकालो होदि । एदेहि अवहारकालेहि पलिदोवमस्सुवरि खंडि. दादओ पुव्वं व वत्तव्वा ।
भवणवासियदेवेसु मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, असंखेज्जा ॥५७॥
एदस्स सुत्तस्स अत्थो सुगमो।
असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरति कालेण ॥२८॥
एदस्स वि अत्थो सुगमो चेव ।
खेत्तेण असंखेजाओ सेढीओ पदरस्स असंखेज्जदिभागो। तेसिं सेढीणं विक्खंभसूई अंगुलं अंगुलवगमूलगुणिदेण ॥ ५९॥
एदस्स अइसुहुमसुत्तस्स विवरणं वुच्चदे । असंखेज्जासंखेज्जमणेयवियप्पं । तत्थ आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर देव सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल होता है। उस देव सम्यग्मिथ्यादृष्टि अवहारकालको संख्यातसे गुणित करने पर देव सासा. दनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इन अवहारकालोंके द्वारा पल्योपमके ऊपर खंडित आदिकका कथन पहलेके समान कहना चाहिये।
भवनवासी देवोंमें मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं ॥ ५७॥
इस सूत्रका अर्थ सुगम है।
कालकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि भवनवासी देव असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके द्वारा अपहृत होते हैं ॥ ५८ ॥
इस सूत्रका भी अर्थ सुगम ही है।
क्षेत्रकी अपेक्षा भवनवासी मिथ्यादृष्टि देव असंख्यात जगश्रेणीप्रमाण हैं जो असंख्यात जगश्रेणियां जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। उन असंख्यात जगश्रेणियोंकी विष्कंभसूची, सूच्यंगुलको सून्यंगुलके प्रथम वर्गमूलसे गुणित करके जो लब्ध आवे, उतनी है ॥ ५९॥
अत्यन्त सूक्ष्म अर्थका प्रतिपादन करनेवाले इस सूत्रका विवरण लिखा जाता है१ असंखेम्जा असुरकुमारा जाव असंखेज्जा थणियकुमारा। अनु. द्वा. सू. १४१, पृ. १७९. २ प्रतिषु 'संखेज्जासंखेज्जाहि ' इति पाठः । ३ घणअंगुलपदमपदंxx सोटिसंगुणं xx। भवणेxx देवाणं होदि परिमाणं । गो. जी. १६१.
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