Book Title: Shatkhandagama Pustak 03
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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[ २६८ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, २, ५४.
णाम | तदो उवरि जमोहिणाणविसओ तमसंखेज्जं णाम । तदो उवरि जं केवलणाणस्सेव विसओ तमर्णतं णाम । संपहि सुहुमदरपरूवणडुमुत्तरसुत्तमाह
असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि उस्सप्पिणीहि अवहिरंति काले ॥ ५४ ॥ नादत्थमिदं सुतं ।
खेत्ते पदरस्स वेळप्पण्णंगुलस्यवग्गपडिभागेणं ॥ ५५ ॥ देवमिच्छाइट्ठि त्ति अणुवट्टदे | अंगुलमिदि बुत्ते एत्थ सूचिअंगुलं घेत्तव्वं । सद
है वह असंख्यात है । उसके ऊपर जो केवलज्ञानके विषयभाव को ही प्राप्त होती है वह अनन्त है । अब अतिसूक्ष्म प्ररूपणा के प्ररूपण करने के लिये आगेका सूत्र कहते हैंकालकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि देव असंख्याता संख्यात अवसर्पिणियों और उत्सपिणियोंके द्वारा अपहृत होते हैं ॥ ५४ ॥
इस सूत्र का अर्थ पहले बतलाया जा चुका है ।
क्षेत्रकी अपेक्षा जगत के दोसौ छप्पन अंगुलोंके वर्गरूप प्रतिभाग से देव मिथ्याराशि आती है, अर्थात् दोसौ छप्पन सूच्यंगुलके वर्गरूप भागहारका जगप्रतर में भाग देने पर देव मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है ॥ ५५ ॥
विशेषार्थ - यद्यपि दोसौ छप्पन सूच्यंगुलों के वर्गका भाग जगप्रतर में देने से ज्योतिषी देवोंकी संख्या आती है, फिर भी व्यन्तर आदि शेष देवोंका प्रमाण ज्योतिषी देवोंके संख्यातवें भागमात्र है, इसलिये यहां पर द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा संपूर्ण देवराशिका प्रमाण पूर्वोक्त कहा है । विशेषरूपसे विचार करने पर तो दोसौ छप्पन सूच्यंगुलों के वर्गका जगप्रतर में भाग देने पर जो लब्ध आवे उससे कुछ अधिक संपूर्ण देवोंका प्रमाण है, ऐसा समझना चाहिये । साथ ही यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि यहां जीवद्वाणमें चौदह मार्गणाओं में मिध्यादृष्टि आदि गुणस्थानोंकी अपेक्षा पृथक् पृथक् संख्या बतलाई है । इसलिये उस उस मार्गणा में सामान्य संख्या के प्रमाणसे मिध्यादृष्टिके प्रमाणको कुछ कम कहना चाहिये था । परंतु वैसा न कह कर सामान्य संख्याका प्रमाण ही यहां प्रायः कर मिथ्यादृष्टि राशिका प्रमाण कहा है सो यह कथन भी द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे ही सर्वत्र समझना चाहिये । विशेषरूपसे विचार करने पर तो सामान्य संख्या के प्रमाणमेंसे गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंके प्रमाणको घटा देने पर ही मिथ्यादृष्टि राशिका प्रमाण होगा ।
यहां पर देव मिध्यादृष्टि पदकी अनुवृत्ति हुई है। सूत्र में ' अंगुल ' ऐसा सामान्य पद
१ देवगतौ देवा मिथ्यादृष्टयोऽसंख्येयाः श्रेणयः प्रतरासंख्येयमागप्रमिताः । स. सि. १, ८.
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