Book Title: Shatkhandagama Pustak 03
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, २, १४. ]
माणागमे सजोगिकेवलिपमाणपरूवणं
एकगुणट्ठाणे असु समरसु संचिदाणं तु । असय सत्तणउदी उवसम - खवगाण परिमाणं ॥ ४७ ॥
सजोगिकेवली दव्वपमाणेण केवडियाः पवेसणेण एको वा दो वा तिण्णि वा, उकस्लेण अट्टुत्तरयं ॥ १३ ॥ एदस्त सुत्तस्स अत्थो पुत्रं व परूवेदव्वो । अद्धं पडुच्च सदसहस्सपुत्तं ॥ १४ ॥
अद्धमस्सिऊण सदसहस्सपुधत्ताणयणविहाणं बुच्चदे - अड्डसमयाहियछम्मासाणमअंतरे जदि अट्ठ सिद्धसमया लब्भंति तो चालीस सहस्स अट्ठसय एक्केतालीसमेत अट्ठसमयाहियछ मासान्तरे केत्तिया सिद्धसमया लब्भंति त्ति तेरासिए कदे तिणिलक्खछब्बीससहस्स- सत्तसय- अट्ठावीसमेत सिद्धसमया लब्भंति । पुणो एदम्हि सिद्धकाल म्ह संचिदस जोगिजीवाणं पमाणाणयणं बुच्चदे । तं जहा - छसु सिद्धसमएसु तिष्णि तिण्णि
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एक एक गुणस्थानमें आठ समय में संचित हुए उपशमक और क्षपक जीवों का परिमाण आठसौ सत्तानवे है ॥ ४७ ॥
सयोगिकेवली जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? प्रवेशसे एक या दो अथवा तीन और उत्कृष्टरूप से एकसौ आठ होते हैं ।। १३ ।।
इस सूत्र का अर्थ पहले के समान कहना चाहिये ।
कालकी अपेक्षा संपूर्ण सयोगी जिन लक्षपृथक्त्व होते हैं ॥ १४ ॥
सयोगी जिन कालका आश्रय करके लक्षपृथक्त्व कहे हैं, आगे उसी लक्षपृथक्त्व के लकी विधि कहते हैं
आठ समय अधिक छह माह के भीतर यदि आठ सिद्ध समय प्राप्त होते हैं तो चालीस हजार आठसौ इकतालीस मात्र अर्थात् इतनीवार आठ समय अधिक छह माह के भीतर कितने सिद्ध समय प्राप्त होंगे, इसप्रकार त्रैराशिक करने पर तीन लाख छब्बीस हजार सात सौ अट्ठाईस सिद्ध समय आते हैं। अब आगे इस सिद्ध कालमें संचित हुए सयोगी जीवोंका प्रमाण लाने की विधि कहते हैं । वह इसप्रकार है
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१ सयोग केवलिनः प्रवेशेन एको वा द्वौ वा त्रयो वा । उत्कर्षेणाष्टोत्तरशतसंख्याः । स. सि. १, ८. २ स्वकालेन समुदिताः शतसहस्रपृथक्त्वसंख्याः । स. सि. १, ८. को डिपुहुत्तं सजोगिओ । पञ्चसं. २, २४. ३ सक्षणाष्टकषण्मास्यामेकत्राष्ट क्षणा यदि । इयतीनां तदा तास सद्वियोग्या कति क्षणाः ॥ चत्वारिंशसहस्राणि षण्मास्योऽष्टक्षणाधिकाः । भवन्त्यष्टशतान्येकचत्वारिंशानि सिद्धयताम् ॥ आद्यन्तयोः प्रमाणेच्छे विधायान्तस्तयोः फलम् । अन्तेन गुणितं कृत्वा भजनीयं तदादिना ॥ समयानां त्रयोलक्षाः षड्डिशतिसहस्रकाः । अष्टावि विबोद्धव्यमपरे शतसप्तकम् | पं. सं. ८६-८९.
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