Book Title: Shatkhandagama Pustak 03
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, २, २२.1 दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं
[ १९९ खेत्तेण सेढीए असंखेज्जदिभागो। तिस्से सेढीए आयामो असंखेज्जाओ जोयणकोडीओ पढमादियाणं सेढिवग्गमूलाणं संखेज्जाणं अण्णोण्णभासेण ॥ २२ ॥
___ एदस्स सुत्तस्स अत्थो वुच्चदे। तं जहा-दव्यकालपमाणसुत्तहि विदियादिछप्पुढविमिच्छाइटिजीवाणं पमाणं परूविदमसंखेजमिदि। तं च असंखेज्ज पल्ल-सायरंगुलजगसेढि-पदर-लोगादिभेदेण अणेयवियप्पमिदि इमं होदि ति ण जाणिजदे, तदो सेढिजगपदरादिउवरिमसंखाणियत्तावणमिदमाह ' सेढीए असंखेज्जदिभागो' त्ति । सेढीए असंखेज्जदिभागो वि पल्ल-सायर-कप्पंगुलादिभेएण अणेयवियप्पो त्ति सूइअंगुलादिहेट्ठिमवियप्पपडिसेहटुं 'तिस्से सेढीए आयामो असंखेज्जाओ जोयणकोडीओ' त्ति वुत्तं । सेढीए असंखेज्जदिभागो त्ति पुरिसलिंगणिदेसो तिस्से त्ति त्थीलिंगणिद्दसे, तदो दोण्हं
क्षेत्रकी अपेक्षा द्वितीयादि छह पृथिवियोंमें प्रत्येक पृथिवीके नारक मिथ्यादृष्टि जीव जणश्रेणीके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। उस जगश्रेणके असंख्यातवें भागकी जो श्रेणी है उसका आयाम असंख्यात कोटि योजन है, जिस असंख्यात कोटि योजनका प्रमाण, जगश्रेणीके संख्यात प्रथमादि वर्गमूलोंके परस्पर गुणा करनेसे जितना प्रमाण उत्पन्न हो, उतना है ॥ २२॥
अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह इसप्रकार है-द्रव्यप्रमाण और कालप्रमाणके प्ररूपण करनेवाले सूत्रद्वारा द्वितीयादि छह पृथिवियोंके मिथ्यादृष्टि जीवोंका प्रमाण ' असंख्यात है ' ऐसा कह आये हैं। परंतु वह असंख्यात पल्य, सागर, अंगुल, जगश्रेणी, जगप्रतर और लोक आदिके भेदसे अनेक प्रकारका है, इसलिये इनमें से यहां यह असंख्यात लिया गया है, यह कुछ नहीं जाना जाता है। अतः जगश्रेणी और जगप्रतर आदि उपरिम संख्याका नियंत्रण अर्थात् निवारण करनेके लिये 'द्वितीयादि छह पृथिवियोंके मिथ्यादृष्टि नारकी जगश्रेणीके असंख्यातवें भाग हैं ' यह कहा । जगश्रेणीका असंख्यातवां भाग भी पल्य, सागर, कल्प और अंगुल आदिके भेदसे अनेक प्रकारका है, इसलिये सूच्यंगल आदि अधस विकल्पोंका निषेध करनेके लिये 'उस श्रेणीका आयाम असंख्यात कोटि योजन है' यह कहा।
शंका-' सेढीए असंखेज्जदिभागो' इसमें पुल्लिंग निर्देश है और 'तिस्से ' यह
१ द्वितीयादिप्वा सप्तम्या मिथ्यादृष्टयः श्रेण्यसंख्येयभागपमिताः। स चासंख्येयभागः असंख्येया योजन कोट्यः । स. सि. १, ८. विदियादिबारदसअडछत्तिदुणिजपदहिदा सेढी। गो. जी. १५३. सेटिअसंह सेसासु जहोत्तरं तह य । पञ्चसं. २, १३.
२ प्रतिषु · अब्मासो' इति पाठः। किंतु पुरतः टकिाय अन्भासेणेत्ति' लभ्यते ।
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