Book Title: Shatkhandagama Pustak 03
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२२०] छक्खडागमे जीवठाणं
[ १, २, २७. हिदेसु पंचिदियतिरिक्खमिच्छाइडिअवहारकालो आगच्छदि। अहवा पण्णट्ठिसहस्स-पंचसय-छत्तीसरूवोवट्टिदआवलियाए असंखेज्जदिमागस्त वग्गेण पदरंगुले भागे हिदे पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइटिअवहारकालो आगच्छदि।
एत्थ खंडिदादिविहिं वत्तइस्सामो । तं जहा- पदरंगुले असंखेज्जे खंडे कए एवं खंडं पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइद्विअवहारकालो होदि । खंडिदं गदं । आवलियाए असंखेज्जदिभागेण पदरंगुले भागे हिदे पंचिदियतिरिक्खमिच्छाइटिअवहारकालो होदि । भाजिदं गदं । आवलियाए असंखेज्जदिभागं विरलेऊण एकेकस्स रूवस्स पदरंगुलं समखंडं करिय दिण्णे तत्थेगखंडं पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइद्विअवहारकालो होदि । विरलिदं गदं । तमवहारकालं सलागभूदं ठवेऊण पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइट्टिअवहारकालपमाणेण पदरंगुलादो अवहिरिज्जदि सलागाहिंतो एगरूवमवणिज्जदि । एवं पुणो पुणो अवणिज्जमाणे सलागाओ पदरंगुलं च जुगवं णिद्विदं । तत्थ आदीए वा अंते वा मज्झे वा एगवारमवहिदपमाणं पंचिंदियतिरिक्ख.
छत्तीसमात्र प्रतरांगुलोंके भाजित करने पर पंचेन्दिय तियंच मिथ्यादृष्टिसंबन्धी अवहारकाल होता है। अथवा, पेंसठ हजार पांचसौ छत्तीससे आवलीके असंख्यातवें भागके वर्गको अपवर्तित करके जो लब्ध आवे उससे प्रतरांगुलके भाजित करने पर पंचेन्द्रिय तियंच मिथ्यादृष्टिसंबन्धी अवहारकाल आता है। अब यहां खंडित आदिककी विधिको बतलाते हैं। वह इसप्रकार है
प्रतरांगुलके असंख्यात खंड करने पर उनमेंसे एक खंडप्रमाण पंचेन्द्रिय तिर्यच मिथ्यादृष्टि अवहारकाल होता है। इसप्रकार खंडितका वर्णन समाप्त हुआ। आवलीके असंख्यातवें भागसे प्रतरांगुलके भाजित करने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि अवहारकाल होता है। इसप्रकार भाजितका वर्णन समाप्त हुआ। आवलीके असंख्यातवें भागको विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति प्रतरांगलको समान खंड करके देयरूपसे दे देने पर उनमेंसे एक विरलनके प्रति प्राप्त एक खंडप्रमाण पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि अवहारकाल होता है । इसप्रकार विरलितका वर्णन समाप्त हुआ। उस आवलीके असंख्यातवें भागरूप अवहारकालको शलाकारूपसे स्थापित करके अनन्तर पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि अवहारकालके प्रमाणको प्रतरांगुलमेसे घटा देना चाहिये। एकबार घटाया इसलिये शलाकाराशिमेंसे एक कम कर देना चाहिये। इसप्रकार पुनः पुनः प्रतरांगुलमेंसे आवलीके असंख्यातवें भागको और शलाकाराशिमेंसे एकको उत्तरोत्तर कम करते जानेपर शलाकाराशि और प्रतरांगुल एक साथ समाप्त होते हैं । यहां पर आदिमें अथवा मध्यमें अथवा अन्तमें एकवार जितना प्रमाण घटाया उतना पंचेन्द्रिय तिर्यव मिथ्यादृष्टि अवहारकाल होता है । इसप्रकार
अ-प्रती होदि', आ-प्रतौ होदि आगच्छदि' इति पाठः । २ प्रतिषु ‘णिदिटुं' इति पाठः।
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