Book Title: Shatkhandagama Pustak 03
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२५६] छक्खंडागमे जीवहाणं
[१, २, ४२. जोयणकोडीओ त्ति वयणे पदरंगुल-घणंगुलादीणं गहणे पत्ते तप्पडिसेहट्ट अंगुलवग्गमूलं तदियवग्गमूलगुणिदेणेत्ति' वयणं । अंगुलवग्गमूलमिदि वुत्ते सूचिअंगुलपढमवग्गमूलं गहेयव्वं । तदियवग्गमूलमिदि वुत्ते सूचिअंगुलतदियवग्गमूलस्स गहणं । कुदो ? सूचिअंगुलसहचारादो अणुवट्टणादो वा। सूचिअंगुलतदियवग्गमूलेण तस्सेव पढमवग्गमूलं गुणिदे मणुसमिच्छाइट्ठीण अवहारकालो होदि । अहवा सूचिअंगुलविदियवग्गमूलेण तदियवग्गमूलं गुणिय सूचिअंगुले भागे हिदे मणुसमिच्छाइटिअवहारकालो आगच्छदि । तस्स खंडिद-भाजिद-विरलिद-अवहिदाणि जाणिऊण वत्तव्याणि । तस्स पमाणं सूचिअंगुलस्स असंखेजदिभागो असंखेज्जाणि मूचिअंगुलपढमवग्गमूलाणि । तं जहा- सूचिअंगुलपढमवग्गमूलेण सूचिअंगुले भागे हिदे पढमवगमूलमेव लभामहे । विदियवग्गमूलेण सूचिअंगुले भागे हिदे विदियवग्गमूलम्हि जत्तियाणि रूवाणि तत्तियाणि पढमवग्गमूलाणि लठभंति । विदिय-तदियवग्गमूलमणोण्णभत्थं करिय सूचिअंगुले भागे हिदे असंखेज्जाणि सचिअंगुलपढमवग्गमूलाणि लभंति त्ति ण संदेहो। तस्स णिरुत्ती तदियवग्गमूलेण
करना चाहिये । 'असंख्यात करोड़ योजन' इसप्रकारका वचन रहने पर प्रतरांगुल और धनांगुल आदिका ग्रहण प्राप्त होता है, अतः उसका प्रतिषेध करनेके लिये सूच्यंगुलका प्रथम वर्गमूल तृतीय वर्गमूलसे गुणित' इसप्रकारका वचन दिया है। यहां पर 'अंगुलका वर्गमूल' ऐसा कथन करने पर उससे सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलका ग्रहण करना चाहिये। 'तृतीय वर्गमूल ' ऐसा कथन करने पर उससे सूच्यंगुलके तृतीय वर्गमूलका ग्रहण करना चाहिये । क्योंकि, यहां पर सूच्यंगुलका साहचर्य संबन्ध है। अथवा, ऊपरसे उसीकी अनुवृत्ति है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि सूच्यंगुलके तृतीय वर्गमूलसे उसी सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलके गुणित करने पर मनुष्य मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल होता है । अथवा, सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलसे तृतीय वर्गमूलको गुणित करके जो लब्ध आवे उसका सूच्यंगुलमें भाग देने पर मनुष्य मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल आता है । इस अवहारकालके खंडित, भाजित, विरलित और अपहृतको जानकर उनका कथन करना चाहिये। उस मनुष्य मिथ्यादृष्टि अवहारकालका प्रमाण सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है जो सूच्यंगुलके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है । उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है- सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलसे सूच्यंगुलके भाजित करने पर सूच्यंगुलका प्रथम वर्गमूल ही प्राप्त होता है । सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलसे सूच्यंगुलके भाजित करने पर सूध्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलमें जितनी संख्या हो उतने सूच्यं. गुलके प्रथम वर्गमूल लब्ध आते हैं । इसीप्रकार सूच्यंगुलके दूसरे और तीसरे वर्गमूलोंका परस्पर गुणा करके जो लब्ध आवे उससे सूच्यंगुलके भाजित करने पर सूच्यंगुलके असंख्यात प्रथम वर्गमूल लब्ध आते हैं, इसमें संदेह नहीं । उसी मनुष्य मिथ्यादृष्टि
१ प्रतिषु — गणिवे ति ' इति पाठः ।
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