Book Title: Shatkhandagama Pustak 03
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, २, ४२.] दव्वपमाणाणुगमे मणुसगदिपमाणपरूवणं
[ २४५ असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंतिकालेण ॥ ४१ ॥
दव्वपमाणमवेक्खिय कालपमाणस्स महत्तोवलंभादो असंखेजासंखेजदिओसप्पिणि-उस्सप्पिणिविसेससंखापरूवणादो वा कालपमाणस्स सुहुमत्तणं वत्तव्यं । सेसपरूवणा पुव्वं व परूवेयव्या।
खेतेण सेढीए असंखेज्जदिभागो । तिस्से सेढीए आयामो असंखेज्जदिजोयणकोडीओ । मणुसमिच्छाइट्ठीहि रूवा पक्खित्तएहि सेढी अवहिरदि अंगुलवग्गमूलं तदियवग्गमूलगुणिदेण ॥ ४२ ॥
सेढीए असंखेज्जदिभागो इदि सामण्णवयणेण संखेजजायणप्पहुडि हेहिमसंखावियप्पाणं सव्वेसिं गहणे संपत्ते तप्पडिसेहढं असंखेजजोयणकोडीओ त्ति वुत्तं । तिस्से सेढीए असंखेज्जदिभागस्स सेढीए पंतीए आयामो दीहत्तणमिदि संबंधेयव्वं । असंखेज्जदि
___ कालकी अपेक्षा मनुष्य मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके द्वारा अपहत होते हैं ॥४१॥
द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कालप्रमाणकी महत्ता पाई जानेके कारण अथवा, कालप्रमाण असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिणीरूप विशेष संख्याका प्ररूपण करनेवाला होनेसे उसकी (कालप्रमाणकी) सूक्ष्मताका कथन करना चाहिये। शेष प्ररूपणाका कथन पहलेके समान करना चाहिये।
क्षेत्रकी अपेक्षा जगश्रेणीके असंख्यातवें भागप्रमाण मनुष्य मिथ्यादृष्टि जीवराशि है। उस श्रेणीका आयाम (अर्थात् जगश्रेणीके असंख्यातवें भागरूप श्रेणीका आयाम) असंख्यात करोड़ योजन है। सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलको सूच्यगुलके तृतीय वर्गमूलसे गुणित करके जो लब्ध आवे उसे शलाकारूपसे स्थापित करके रूपाधिक (अर्थात् एकाधिक तेरह गुणस्थानवर्ती राशिसे अधिक) मनुष्य मिथ्यादृष्टि राशिके द्वारा जगश्रेणी अपहृत होती है ॥४२॥
सत्र में जगश्रेणीके असंख्यातवे भागप्रमाण' इसप्रकार सामान्य वचन देनेसे संख्यात योजन आदि अधस्तन संपूर्ण संख्याका ग्रहण प्राप्त होता है, अतः उसका प्रतिषेध करनेके लिये ' असंख्यात करोड़ योजन' पदका ग्रहण किया। सूत्रमें आये हुए 'उस श्रेणीका आयाम' इस पदसे उस श्रेणीके असंख्यात भागकी पंक्तिका आयाम अर्थात् दीर्घता ऐसा संबन्ध
१ मनुष्यगतौ मनुप्या मिथ्यादृष्टयः श्रेण्यसंख्येयभागप्रमिताः। स चासंख्येयभागः असंख्येया योजनकोव्यः । स. सि. १,८. सेटी सूईअंगुल आदिमत दियपदभाजिदेगूणा । सामण्णमणुसरासी । गो. जी. १५७. उनकोसपए मणुया सेटी रूवाहिया अवहरति । तइयमूलाइएहिं अंगुलमूलप्पएसेहिं । पंचस. २,२१.
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