Book Title: Shatkhandagama Pustak 03
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, २, ३३.] दव्वपमाणाणुगमे तिरिक्खगदिपमाणपरूवणं
[२२९ पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तमिच्छाइट्ठीणमवहारकालो होदि । अहवा तप्पाओग्गसंखेज्जावे वग्गिऊण पदरंगुले भागे हिदे पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तमिच्छाइट्ठीणमवहारकालो होदि । एदस्स खंडिदादओ जाणिय भाणियव्या । एदेण अवहारकालेण जगपदरे भागे हिदे पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तमिच्छाइहिदव्वं होदि । एवं पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तमिच्छाइटिदव्वपरूवणा गदा।
सासणसम्माइट्टिप्पडि जाव संजदासंजदा ति ओघं ॥३२॥
एदस्स सुत्तस्स जहा तिरिक्खगुणपडिवण्णाणं सुत्तस्स वक्वाणं कदं तहा कायव्वं, विसेसाभावादो । एवं पंचिंदियतिरिक्ख परूवणा समत्ता ।
पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु मिच्छाइट्ठी दव्यपमाणेण केवडिया, असंखेज्जा ॥ ३३ ॥
___ एत्थ पंचिंदियणिदेसो सेसिंदियवुदासट्ठो। तिरिक्खणिद्दे सो सेसगदिवुदासट्ठो। जोणिणीणिद्देसो पुरिस-णqसयलिंगवुदासहो । मिच्छाइद्विणिद्देसो सेसगुणपडिवण्णवुदासट्ठो।
है। अथवा, तद्योग्य संख्यातका वर्ग करके और उस वर्गित राशिका प्रतरांगुलमें भाग देने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इस अवहारकालके खंडित आदिकको समझकर कथन करना चाहिये।
इस अवहारकालसे जगप्रतरके भाजित करने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त मिथ्याष्टियोंका द्रव्य होता है । इलाकार पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त मिथ्यादृष्टियोंकी द्रव्यप्ररूपणा समाप्त हुई।
सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त जीव ओघप्ररूपणाके समान पल्योपमके असंख्यातवें भाग हैं ॥ ३२ ॥
जिसप्रकार तिर्यचों में गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंके प्रतिपादन करनेवाले सूत्रका व्याख्यान कर आये हैं, उसीप्रकार इस सूत्रका भी व्याख्यान करना चाहिये, क्योंकि, उस सूत्रके व्याख्यानसे इस सूत्रके व्याख्यानमें कोई विशेषता नहीं है। इसप्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यंच प्ररूपणा समाप्त हुई।
- पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियोंमें मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं ।। ३३ ॥
सूत्रमें पंचेन्द्रिय पदका निर्देश शेष इन्द्रियोंके निवारण करनेके लिये किया है। तिर्यंच पदका निर्देश शेष गतियोंके निवारण करनेके लिये किया है। योनिमती पदका निर्देश पुरुषलिंग और नपुंसकलिंगके निवारण करनेके लिये किया है। मिथ्यादृष्टि पदका निर्देश
१ असंखिज्जा पंचिंदियतिरिक्खजोणिआ। अनु. सू. १४१ पृ. १७९.
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