Book Title: Shatkhandagama Pustak 03
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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९८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, १४. हवदि । वुत्तं च
( सत्तादी अहंता छण्णवमझा य संजदा सव्वे ।
तिगभजिदा विगगुणिदापमत्तरासी पमत्ता दु' ।। ५१ ।। Vएसा दक्षिणपडिवत्ती । एसा गाहा ण भदिया त्ति के वि आइरिया जुत्तिबलेण भणंति । का जुत्ती ? वुच्चदे-सव्वतित्थयरेहितो पउमप्पहभडारओ बहुसीसपरिवारो तीससहस्साहिय-तिण्णिलक्खमेत्तमुणिगणपरिवुदत्तादो । तेसु सत्तर-सएण गुणिदेसु एक्कसविलक्खाहियपंचकोडिमेत्ता संजदा होति । एदे च पुचिल्लगाहाए वुत्तसंजदाणं पमाणं ण पावेंति । तदो गाहा ण भदिएत्ति । एत्थ परिहारो वुच्चदे- सम्योसप्पिणीहिंतो अइमा हुंडोसप्पिणी। तत्थतणतित्थयरसिस्सपरिवार जुगमाहप्पेण ओहट्टिय डहरभावमापण्ण घेत्तूण ण गाहासुतं सिदुं सक्किज्जदि, सेसोसप्पिणीतित्थयरेसु बहुसीसपरिवारुवलंभादो। ण च भरहेरावयवासेसु मणुसाण बहुत्तमत्थि, जेणेत्थतणेक्कतित्थयर
है। इसे दूना करने पर प्रमत्तसंयत जीवराशिका प्रमाण होता है। कहा भी है
जिस संख्याके आदिमें सात हैं, अन्तमें आठ हैं और मध्यमें छहवार नौ हैं, उतने अर्थात आठ करोड निन्यानवे लाख निन्यानवे हजार नौ सौ सत्तान्नवे सर्व संयत हैं। (इनमेंसे उपशमक और क्षपकॉका प्रमाण ९०२६८८ निकालकर जो राशि शेष रहे उसमें) तीनका भाग देने पर २९६९९१०३ अप्रमत्तसंयत होते हैं। और अप्रमत्तसंयतोंके प्रमाणको दोसे गुणा कर देने पर ५९३९८२०६ प्रमत्तसंयत होते हैं ॥५१॥
__ यह दक्षिण मान्यता है। यह पूर्वोक्त गाथा ठीक नहीं है ऐसा कितने ही आचार्य युक्तिके बलसे कहते हैं।
शंका-वह कौनसी युक्ति है ? आगे शंकाकार उसी युक्तिका समर्थन करता है कि संपूर्ण तीर्थकरोंकी अपेक्षा पद्मप्रभ भट्टारकका शिष्य-परिवार अधिक था, क्योंकि, घे तीन लाख तीस हजार मुनिगणोंसे वेष्ठित थे। इस संख्याको एकसौ सत्तरसे गुणा करने पर पांच करोड़ इकसठ लाख संयत होते हैं। परंतु यह संख्या पूर्व गाथामें कहे गये संयतोंके प्रमाणको नहीं प्राप्त होती है, इसलिये पूर्व गाथा ठीक नहीं है ?
समाधान-आगे पूर्व शंकाका परिहार करते हैं कि संपूर्ण अवसर्पिणियोंकी अपेक्षा यह हुंडावसर्पिणी है, इसलिये युगके माहात्म्यसे घटकर म्हस्वभावको प्राप्त हुए हुंडावसर्पिणी कालसंबन्धी तीर्थकरके शिष्य-परिवारको ग्रहण करके गाथास्त्रको दषित करना शक्य नहीं है, क्योंकि, शेष अवसर्पिणियोंके तीर्थकरोंके बड़ा शिष्य-परिवार पाया जाता है। दूसरे भरत और ऐरावत क्षेत्रमें मनुष्योंकी अधिक संख्या नहीं पाई जाती है जिससे उन दोनों क्षेत्रसंबन्धी एक तीर्थकरके संघके प्रमाणसे विदेहसंबन्धी एक तीर्थकरका संघ समान
१ सत्तादी अटुंता कण्णवमज्ज्ञा य संजदा सव्वे । अंजलिमौलियहत्थो तियरणसुद्धे णमंसामि । गो.जी. ६३१.
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