Book Title: Shatkhandagama Pustak 03
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१६६] छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, २, १९. कालो होदि । एदाओ अवहारकालपक्खेवसलागाओ सामण्णणेरइयमिच्छाइटिअवहारकालमेत्तछप्पुढविमिच्छाइट्ठिदव्यमस्सिऊण उप्पण्णाओ ।
पुणो एदाओ चेव अवहारकालपक्खेवसलागाओ विक्खंभसूचिम्हि अवणयणरूवपमाणं च पुढविं पुढविं पडि एत्तियं एत्तियं होदि त्ति परूविज्जदे । तत्थ ताव विक्खंभसूचिम्हि अवणिज्जमाणरूवाणं पमाणं वुच्चदे। तं जहा- एगसढिवणयणं पडि जैदि सामण्णणेरइयविक्खं भसूचिम्हि एगरूवस्स अवणयणं लब्भदि तो विदियपुढविदव्यस्त अवणयणं पडि किं लभामो त्ति सरिसमवणिय सेढिवारसवग्गमूलेण एगरूवं खंडिदे विदियपुढविमस्सिऊण विक्खंभसूचिम्हि अवणयणपमाणमागच्छदि । तं च एवं ३ । एवं सेसपुढवीणं पि तेरासियकमेण विक्खंभसूचिम्हि अवणिज्जमाणरूवपमाणमाणेयव्वं । तेसिं
होता है। ये अवहारकाल प्रक्षेपशलाकाएं सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि अवहारकालमात्र अर्थात् सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि अवहारकालगुणित छह पृथिवीगत मिथ्यादृष्टि द्रव्यका आश्रय लेकर उत्पन्न हुई हैं।
उदाहरण-उपरिम विरलन ३२७६८, अधस्तन विरलन १५५,
३२७६८ . . १९३ - २०६४३८४ अव. प्रक्षेपशलाकाएं ।
१९३
३२७६८ + २०६४३८४ - ८३८८६०८ ..
१९३ २ ९३ पृ. पृ. अव.।
अब प्रत्येक पृथिवीके प्रति अवहारकाल प्रक्षेपशलाकाओंका प्रमाण और विष्कभसूरी में अपनयनरूप संख्याका प्रमाण इतना इतना होता है, इसका प्ररूपण करते हैं। उसमें भी पहले विष्कंभसूची में अपनीयमान संख्याका प्रमाण कहते हैं। वह इसप्रकार है-एक जगश्रेणीके अपनयनके प्रति यदि सामान्य नारक विष्कंभसूचीमें एक संख्या कम होती है तो द्वितीय पृथिवीके द्रव्यके घटानेके प्रति कितनी संख्या प्राप्त होगी, इसप्रकार सदृशका अपनयन करके (अर्थात दसरी पृथिवीके द्रव्यको जगश्रेणीसे अपनयन करके अर्थात् भाजित करके) जर श्रेणीके बारहवें वर्गमूलसे एकको खंडित करने पर दूसरी पृथिवीका आश्रय करके विष्कंभसूचीमें अपमयनरूप संख्याका प्रमाण आ जाता है। वह यह १३ है। उदाहरण-१४ १६३८४ = १६३८४, १६३८४ ५ ६५५३६ % , अपनयनरूप ।
अथवा, १४-१(-:-) इसीप्रकार शेष पृथिवियोंका भी त्रैराशिक क्रमसे विष्कंभसूचीमें अपनीयमान संख्याका प्रमाण ले भाना चाहिये । प्रत्येक पृथिवीके प्रति उन अपनीयमान संख्याओंका
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