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लाटीसंहिता
३७
स्वार्थो हि ज्ञानमात्रस्य ज्ञानमेकं गुणश्चितः । परार्थाः स्वात्मसम्बन्धिगुणाः शेषाः सुखादयः ॥५३ तद्यथा सुखदुःखादिभावो जीवगुणः स्वयम् । ज्ञानं तद्वेदकं नूनं नार्थाद्ज्ञानं सुखादिमत् ॥५४ अपि सन्ति गुणाः सम्यक् श्रद्धानादिविकल्पकाः । उद्देशो लक्षणं तेषां तत्परीक्षाऽधुनोच्यते ॥५५ तत्रोद्देशो यथा नाम श्रद्धारुचिप्रतीतयः । चरणं च यथाम्नायादर्थात्तत्त्वार्थगोचरम् ॥५६ तत्त्वार्थाभिमुखी बुद्धिः श्रद्धा सात्म्यं रुचिस्तथा। प्रतीतिस्तु यथेति स्यात्स्वीकारश्चरणं क्रिया ॥५७ अर्थादाद्यत्रिकं ज्ञानं ज्ञानस्यैवार्थपर्ययात् । क्रिया वाक्कायचेतोभिर्व्यापारः शुभकर्मसु ॥५८ व्यस्ताश्चैते समस्ता वा सदृष्टलक्षणं न वा। समक्षे वा विपक्षे वा सन्ति यद्वा न सन्ति वा ॥५९ . स्वानुभूतिसनाथाश्चेत्सन्ति श्रद्धादयो गुणाः । स्वानुभूति विनाभासाः नार्थाच्छद्धादयो गुणाः ॥६० तस्माच्छद्धादयः सर्वे सम्यक्त्वं स्वानुभूतिवत् । न सम्यवत्वं तदाभासा मिथ्याश्रद्धादिवच्चितः ॥६१ सम्यग्मिथ्याविशेषाभ्यां विना श्रद्धादिमात्रकाः । सपक्षवद्विपक्षेपि वृत्तित्वाद् व्यभिचारिणः ॥६२ अर्थाच्छद्धादयः सम्यग्दृष्टिश्रद्धादयो यतः । मिथ्याश्रद्धादयो मिथ्या नार्थाच्छद्धादयो यतः ॥६३ ननु तत्त्वरूचिः श्रद्धा श्रद्धामात्रैकलक्षणात् । सम्यग्मिथ्याविशेषाभ्यां सा द्विधा तु कुतोऽर्थतः ॥६४ नैवं यतः समव्याप्तिः श्रद्धास्वानुभवद्वयोः । नूनं नानुपलब्धार्थे श्रद्धा खरविषाणवत् ॥६५
मानी गयी है अतः केवलज्ञान हो उसका स्वार्थ है और स्वार्थसे सम्बन्ध रखनेवाले शेष सुखादि गुण उसके परार्थ हैं ॥५३॥ आशय यह है कि सुख दुःखादि भाव यद्यपि जीवके निज गुण हैं और ज्ञान उसका वेदक है तथापि वास्तवमें ज्ञान सुखादिरूप नहीं है ।।५४॥ यतः सम्यक् श्रद्धान आदिके भेदसे और भी बहुतसे गुण हैं, इसलिए यहाँ अब उनका उद्देश, लक्षण और परीक्षा कहते हैं ॥५५॥ उनमेंसे उद्देश इस प्रकार है। जैसे कि आम्नायके अनुसार जीवादि पदार्थ-विषयक श्रद्धा, रुचि, प्रतीति और चरणको सम्यक्त्व कहना उद्देश है ॥५६॥ इनमें से जीवादि पदार्थोंके सन्मख बद्धिका होना श्रद्धा है। बुद्धिका तन्मय हो जाना रुचि है । 'ऐसा ही है' इस प्रकार स्वीकार करना प्रतीति है और अनुकूल क्रिया करना चरण है ॥५७।। इनमेंसे आदिके तीन वास्तव में ज्ञान ही हैं, क्योंकि श्रद्धा, रुचि और प्रतीति ये ज्ञानकी ही पर्याय हैं। तथा चरण यह चारित्रगुणकी पर्याय है, क्योंकि शुभ कार्योंमें जो वचन, काय और मनका व्यापार होता है उसे चरण कहते हैं ॥५८॥ ये श्रद्धा आदि चारों पृथक् पृथक् रूपसे अथवा समस्त रूपसे सम्यग्दृष्टिके लक्षण भी हैं और नहीं भी हैं, क्योंकि ये सपक्ष और विपक्ष दोनों ही अवस्थाओंमें पाये जाते हैं और नहीं भी पाये जाते हैं ॥५९|| यदि स्वानुभूतिके साथ होते हैं तो श्रद्धादिक गुण हैं और स्वानुभूतिके बिना वे वास्तवमें गुण नहीं हैं किन्तु गुणाभास हैं ॥६०|| इसलिए यह निष्कर्ष निकला कि श्रद्धा आदिक सभी गुण स्वानुभूतिके साथ समीचीन हैं और सम्यक्त्वके बिना मिथ्या श्रद्धा आदि रूप होने के कारण वे तदाभास हैं ॥६१॥ सम्यक् और मिथ्या विशेषणके बिना जब केवल श्रद्धा आदिक विवक्षित होते हैं तब उनकी सपक्षके समान विपक्षमें वृत्ति देखी जाती है अतः वे व्यभिचारी हैं ॥६२॥ यतः सम्यग्दृष्टिके श्रद्धा आदिक ही वास्तवमें श्रद्धा आदिक हैं अत: मिथ्यादृष्टिके श्रद्धा आदिकको मिथ्या जानना चाहिए। वे वास्तवमें श्रद्धा आदिक नहीं हैं ॥६३।। शंका-जब कि तत्त्व रुचिका नाम श्रद्धा है क्योंकि उसका श्रद्धा यही एक मात्र लक्षण है । तब फिर वह वास्तवमें सम्यक् श्रद्धा और मिथ्याश्रद्धा ऐसी दो भेद वाली कैसे हो जाती है ? ||६४॥ समाधान-ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि श्रद्धा और स्वानुभव इन दोनों में समव्याप्ति है, इसलिए अनुपलब्ध पदार्थमें गधेके सींगके समान श्रद्धा हो ही
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