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श्रावकाचार-संग्रह
यतः प्रज्ञाविनाभूतमस्ति सम्यग्विशेषणम् । तस्याश्वाभावतो नूनं कुतस्त्या दिव्यता दृशः ॥८२ नैवं यतः सुसिद्धं प्रागस्ति चानिच्छितः क्रिया । शुभायाश्वाशुभायाश्च को विशेषो विशेषभाक् ॥८३ नवनिष्टार्थसंयोगरूपा सानिच्छतः क्रिया । विशिष्टेष्टार्थसंयोगरूपा सानिच्छतः कथम् ॥८४ तत्क्रिया व्रतरूपा स्यादर्थान्नानिच्छतः स्फुटम् । तस्याः स्वतन्त्रसिद्धत्वात्सिद्धं कर्तृत्वमर्थसात् ॥ ८५ नैवं यथोऽस्त्यनिष्टार्थः सर्वः कर्मोदयात्मकः । तस्मान्नाकाङ्क्षतेऽज्ञानी यावत्कर्म च तत्फलम् ॥८६ यत्पुनः कश्चिदिष्टार्थोऽनिष्टार्थः कश्चिदर्थसात् । तत्सर्वं दृष्टिदोषत्वात्पीतशङ्खावलोकवत् ॥८७ दृग्मोहस्यात्यये दृष्टिः साक्षाद्भूतार्थदर्शिनी । तस्यानिष्टस्त्यनिष्टार्थबुद्धिः कर्मफलात्मके ॥ ८८ न चासिद्धमनिष्टत्वं कर्मणस्तत्फलस्य च । सर्वतो दुःखहेतुत्वाद युक्तिस्वानुभवागमात् ॥८९ अनिष्टार्थ फलत्वात्स्यादनिष्टार्था व्रतक्रिया । दुष्टकार्यानुरूपस्य हेतोर्दृष्टोपदेशवत् ॥९० अथासिद्धं स्वतन्त्रत्वं क्रियायाः कर्मणः फलात् । ऋते कर्मोदयाद्धेतोस्तस्याश्चासम्भवो मतः ॥९१ यावदक्षीणमोहस्य क्षीणमोहस्य चात्मनः । यावत्यस्ति क्रिया नाम तावत्योदयिकी स्मृता ॥९२ पौरुषं न यथाकामं पुंसः कर्मोदितं प्रति । न परं पौरुषापेक्षो देवापेक्षो हि पौरुषः ||९३
करता है कि उसका फल अबन्ध है, क्योंकि इसके सम्यक् विशेषण प्रज्ञाका (स्वानुभूतिका) अविनाभावी है उसके विना सम्यग्दर्शन में दिव्यता कैसे आ सकती है ॥ ८१-८२ ॥ समाधान - ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि यह पहले ही अच्छी तरह सिद्ध कर आये हैं कि विना इच्छा के ही सम्यग्दृष्टि के क्रिया होती है । फिर इसके शुभ क्रिया और अशुभ क्रियाकी क्या विशेषता शेष रही अर्थात् कुछ भी नहीं ||८३ || शंका – जो क्रिया अनिष्ट अर्थका संयोग करानेवाली है वह तो नहीं चाहनेवालेके भी हो जाती है किन्तु जो विशिष्ट और इष्ट पदार्थ का संयोग रूप है वह नहीं चाहनेवाले के कैसे हो सकती है ? || ८४|| उदाहरणार्थ व्रतरूप जो समीचीन क्रिया है- वह वास्तव में विना चाहनेवाले पुरुषके नहीं होती । उसके करने में व्यक्ति स्वतन्त्र है इसलिए कोई उसका कर्ता है यह बात सिद्ध होती है ||८५|| समाधान - ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि कर्मके उदयरूप जो कुछ भी है वह सब अनिष्ट अर्थ है, इसलिये जितना कर्म और उसका फल है उसे ज्ञानी पुरुष नहीं चाहता है ||८६|| और प्रयोजनवश हमें जो कोई पदार्थ इष्टरूप और कोई पदार्थ अनिष्टरूप प्रतीत होता है सो यह सब दृष्टि दोषसे ही प्रतीत होता है । जैसे कोई दृष्टि दोषसे शुक्ल शंखको पीला देखता है वैसे ही दृष्टि दोष से पदार्थोंमें इष्टानिष्ट कल्पना हुआ करती है ॥८७॥ किन्तु दर्शनमोहनीयका नाश हो जानेपर जो पदार्थ जैसा है उसे उसी रूपसे साक्षात् देखनेवाली दृष्टि हो जाती है । फिर उसकी अनिष्टरूप कर्मोंके फलमें अनिष्ट पदार्थरूप ही बुद्धि होती है || ८८|| कर्म और उसका फल अनिष्टरूप है यह बात असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि कर्म और कर्मका फल सर्वथा दुःखका कारण है इसलिये इनका अनिष्टरूप होना युक्ति, अनुभव और आगमसे सिद्ध है || ८९ || जैसे दुष्ट उपदेश के समान जिस दुष्ट हेतुसे दुष्ट कार्य की उत्पत्ति होती है वह दुष्ट ही कहा जाता है । वैसे ही व्रत क्रियाका फल अनिष्ट है इसलिये वह अनिष्टार्थ ही है ||१०|| यतः क्रिया कर्मका फल है इसलिये उसे स्वतन्त्र मानना ठीक नहीं है, क्योंकि कर्मोदयरूप हेतुके विना क्रियाकी उत्पत्ति होना असम्भव है ||११|| चाहे अक्षीणमोह आत्मा हो और चाहे क्षीणमोह इन दोनोंके जितनी भी क्रिया होती है वह सब औदयिकी ही मानी गयी है ॥९२॥
जीवका पुरुषार्थं कर्मोदय के प्रति इच्छानुसार नहीं होता और वह केवल पुरुषार्थकी
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