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श्रीदेवसेनविरचित प्राकृत-भावसंग्रह लोहमए कुतरंडे लग्गो परिसोड तोरिणीवाहे । वुड्डइ जह तह वुड्डइ कुपत्तसम्माणओ पुरिसो॥२०० ण लहंति फलं गरुयं कुच्छियपहुछित्तसेविया पुरिसा।
जह तह कुच्छियपत्ते दिण्णा वाणा मुणेयव्या ॥२०१ पत्थि वयसोलसंजमझाणं तवणियमबंभचेरं च । एमेव भणइ पत्तं अप्पाणं लोयममम्मि ॥२०२ मयकोहलोहगहिओ उड्डियहत्थो य जायणासीलो। गिहवावारासत्तो जो सो पत्तो कहं हवा ॥२०३ हिंसाइदोसजुत्तो अट्ठरउद्देहि गमियअहरत्तो। कयविक्कयवर्सेतो इंदियविसएसु लोहिल्लो ॥२०४ । उत्तमपत्तं णिदिय गुरुठाणे अप्पयं पकुव्वतो । होउं पावेण गुरु वुड्डइ पुण कुगइउवहिम्मि ॥२०५
जो वोलइ अप्पाणं संसारमहण्णवम्मि गल्यम्मि।
सो अण्णं कह तारइ तस्साणमग्गे जणं लग्गं ॥२०६ एवं पत्तविसेसं णाऊणं देह दाणमणवरयं । णियजीवसग्गमोक्खं इच्छयमाणो पयत्तेण ॥२०७
लहिऊण संपया जो देह ण दाणाई मोहसंछष्णो। सो अप्पाणं अप्पे वंचेइ य पत्थि संदेहो ॥२०८ ण य देह गेय भुजह अत्यं णिखणे लोहसंछष्णो। सो तणकयपुरिसो इव रक्खइ सत्सं परस्सत्थे ॥२०९ किविणेण संचयधणं ण होइ उक्यारियं जहा तस्स ।
महुयरि इव संचियमहु हरंति अण्णे सपाहिं ॥२१० भक्तोंको भी डुबाता है ॥ १९९ ।। जिस प्रकार लोहमयी नावमें बैठा हुआ पुरुष नदीके प्रवाहमें स्वयं डूबता है उसी प्रकार कुपात्रोंका सम्मान करनेवाला पुरुष भी इस संसार-समुद्रमें अवश्य डूबता है ।। २०० ।। जिस प्रकार खोटे स्वामीकी सेवा करनेवाले पुरुष उत्तम फलको नहीं पाते हैं, उसी प्रकार कुत्सित पात्रमें दिया गया दान व्यर्थ समझना चाहिए ॥ २०१॥ जिनके व्रत, शील, संयम, ध्यान, तप, नियम और ब्रह्मचर्य आदि कुछ भी नहीं है, वे पुरुष भी इस लोकके भीतर अपनेको पात्र कहते हैं ( यह बड़े आश्चर्यकी बात है ? ) || २०२ ॥ जो मद, क्रोध, लोभमें गृहीत हैं, हाथ उठा उठा करके याचनाशील हैं अर्थात् इधर-उधर मांगते फिरते हैं और घरके व्यापारमें आसक्त हैं, ऐसे लोग पात्र कैसे हो सकते हैं ? अर्थात् कभी नहीं हो सकते ।। २०३ ॥ जो हिंसा, असत्य आदि दोषोंसे युक्त हैं, आतं-रौद्र ध्यानसे दिन और रातको गंवाते हैं, सांसारिक वस्तुओंके क्रय-विक्रयमें लगे रहते हैं, इन्द्रियोंके विषयोंमें लोलुपता रखते हैं, उत्तम पात्रोंकी निन्दा करके गुरुओंके स्थान में अपने आपको प्रकट करते हैं, वह अपने ही पापोंसे गुरु ( भारी ) होकर कुगतिरूप समुद्रमें डूबते हैं ।। २०४-२०५ ।। जो इस अगाध संसार-समुद्र में अपने आपको डुबाता है, वह उसके मार्गमें लगे ( चलने वाले ) मनुष्यको कैसे तारेगा ॥ २०६ । इस प्रकार पात्र विशेषको जान करके ही स्वर्ग-मोक्षके अभिलाषी मनुष्यको प्रयत्नपूर्वक निरन्तर दान देना चाहिए ॥ २०७॥
जो पुरुष सम्पत्तिको पाकरके भी मोहसे व्याप्त होकर पात्रोंको दान नहीं देता है, वह स्वयं अपने आपको ही ठगता है, इसमें कोई सन्देह नहीं है ।। २०८ ॥ जो धनी पुरुष लोभसे युक्त होकर न तो पात्रोंको दान देता है और न स्वयं भोगता है, वह तृणोंसे बनाये गये पुरुषाकार पुतलेके समान धानको दूसरोंके लिए ही रखाता है ।। २०९ ॥ जिस प्रकार मधु-मक्खियोंके द्वारा संचित मधुको वे स्वयं उपभोग नहीं कर पाती, किन्तु दूसरे ही पुरुष उसका उपभोग करते हैं, इसी प्रकार
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