Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 3
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 553
________________ श्रावकाचार-संग्रह इत्यं यो धारणाः पञ्च ज्ञात्वा ध्याने स्थिरीभवेत् । पिण्डस्थे तस्य जायन्ते सर्वा वाञ्छितसिद्धयः ।।५७ ।। पिण्डस्थधारणाभ्यासवशीभूताशयस्ततः । रूपस्थं परमं ध्यानं ध्यातुमारभते हि तत् ।।५८ तद्यथारूपस्थे तीर्थकृद ध्येयः समस्तातिशयान्वितः । उच्चैः सिंहासनासीनोऽमरचामरवीजितः ॥५९ शुद्धस्फटिकसंकाशकोटीनप्रभविग्रहः । स्वप्रभावनिरस्तेसिंहादिप्राणिविग्रहः ॥६० ख्यापयन्त्रिजगद्-राज्यछत्रत्रयसमन्वितः । उच्चैरशोकसद-वृक्षच्छायाश्रितनरामरः ॥६१ देवदुन्दुभिनिर्घोषवधिरोभूतविष्टपः । दिव्यगो प्रीणिताशेषदेवदानवमानवः ॥६२ अनारतभवत्पुष्पवर्षाञ्चितसभाङ्गणः । सेवागतनमद्विश्वनरोरगमरुद्गणः ॥६३ भवाम्बुधिपतज्जन्तुदत्तहस्तावलम्बनः । केवलज्ञानदृग्दृष्टस्पष्टत्रिभुवनस्थितिः ॥६४ वीतरागो गतद्वषो विरोषो विमदो वितट । विलोभोऽनामयोऽमायोऽनपायो निर्भयोऽक्षयः ॥६५ निष्कामः कामिनीमुक्तो विवैरी विगतायुधः। पर्यङ्कासनमासोनो निष्पन्दीभूतलोचनः ॥६६ निष्कारणसुहृद धर्मदेशकोऽनन्तविक्रमः । अनन्तमहिमाऽपास्तसमस्तासन्नयान्वयः ॥६७ अजः स्रष्टा जगज्ज्येष्ठः स्वयम्भूः कमलासनः । ब्रह्मा पुराणपुरुषश्चतुरास्यः पितामहः ॥६८ घोपतिः पुण्डरीकाक्षो नरकान्तकरोऽच्युतः । अनन्तो विष्णुरव्यक्तो हृषीकेशो नरोत्तमः ॥६९ सिंहासन पर आसीन, और सर्वअतिशयोंसे संयुक्त अर्हन्तके समान स्मरण करे ।। ५६ ।। (यह तत्त्वरूपवती धारणा है।) इस प्रकार जो मनुष्य पाँचों धारणाओंको जानकर पिण्डस्थ ध्यानमें स्थिर होता है उसका सभी मनोवांछित सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं ॥ ५७॥ पिण्डस्थ धारणाओंके अभ्याससे जिसने अपने . मनको वशमें कर लिया है, वह पुरुष पुनः परम रूपस्थ ध्यानको ध्याना इस प्रकारसे प्रारम्भ करता है॥ ५८ ॥ रूपस्थ ध्यानमें समस्त अतिशयोंसे युक्त, ऊँचे सिंहासन पर विराजमान, और देवोंक द्वारा चामरोंसे वीजित तीर्थंकरका ध्यान करना चाहिए ।। ५९ ॥ जिनका कि शरीर शुद्ध स्फटिकके सदृश और कोटि सूर्योंकी प्रभावाला है, और जिसने अपने प्रभावसे बकरे और सिंहादि प्राणियोंके जन्म-जात वैर-विरोधको दूर कर दिया है, जो तीन जगत्के साम्राज्यको प्रकट करने वाले तीन छत्रोंसे युक्त हैं, जिनके समीपस्थ ऊंचे अशोक वृक्षकी उत्तम छायामे देव और मनुष्य आश्रय ले रहे है. जहां पर बज रही देव-दन्दभियोंकी गम्भीर ध्वनिस समस्त लोक बधिरसा हो रहा है, जिनकी दिव्यध्वनि समस्त देव,दानव और मानव समूहको हर्षित कर रही है, जहाँका सभाङ्गण निरन्तर हो रही पुष्ववर्षासे आच्छादित है, सेवाके लिए आये हुए समस्त मनुष्य नाग और देवगण जिन्हें र हैं, जो संसार-समद्रमें पडे हए प्राणियोंको निकालने के लिए इस्तावलम्बन दे रहे हैं. जिन्होंने केवलज्ञानरूप नेत्रसे त्रिभवनकी समस्त स्थितिको स्पष्ट देख लिया है. जो राग-रहित हैं. द्वेष-रहित हैं. रोष-रहित हैं. मद-रहित हैं. तष्णा-रहित हैं. लोभ-रहित हैं. रोग-रहित हैं. मायारहित हैं, अपाय-(विनाश-) रहित हैं, निर्भय हैं, अक्षय हैं, निष्काम हैं, कामिनीसे रहित हैं, वैरिरहित हैं, आयुधोंसे रहित हैं, पद्मासनसे विराजमान हैं, जिनके नेत्र टिमकारसे रहित हैं, जो सबके निष्कारण मित्र हैं, धर्मके उपदेशक हैं, अनन्त पराक्रमी हैं. अनन्त महिमावाले हैं, समस्त कुनयोंकी परम्पराके दूर करनेवाले हैं, अजन्मा हैं, स्रष्टा हैं, जगज्ज्येष्ठ हैं, स्वयम्भ हैं, कमलासन हैं, ब्रह्मा हैं, पुराण हैं, चतुरानन हैं, पितामह हैं, श्रीपति हैं, पुण्डरीकाक्ष हैं, नरकान्तक हैं, अच्युत हैं, अनन्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574