Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 3
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 554
________________ श्री पं० गोविन्दविरचित पुरुषार्थानुशासन-गत श्रावकाचार का महन्ता महादेवो वामदेव उमापतिः । शङ्करो भुवनेशानः शिवस्त्र्यक्षो दिगम्बरः ॥७० समन्तभद्रः सुगतो लोकजिद् भगवान् जिनः । महाशक्तिधरः स्वामी गणाधीशो विनायकः ॥७१ तमोरिपुर्जगच्चक्षुविवस्वांल्लोकबान्धवः । कान्तिमानौषधीशानः कलावान् कमलाप्रियः ॥७२ वाचस्पतिः सुरगुरुर्योगीशो भूतनायकः । नित्य इत्यादिसङ्ख्यातान्वर्थनामोपलक्षितः ॥ ७३ सर्वज्ञः सर्वगः सर्वः सर्वदः सर्वदर्शनः । सर्वाङ्गीशरणीभूतः सर्वविद्यामहेश्वरः ॥७ अनन्त सुखसाद्भूतः कृतार्थः सकलार्थवान् । नवकेवललब्धीद्धसमृद्धिः सिद्धशासनः ॥७५ इन्द्रादिभिः सदाऽभ्यर्यश्चतुर्धा दिविषद्गणैः । चक्रवर्त्यादिभिः स्तुत्योऽभून्नभोगोचरैर्नरैः ॥७६ सर्वासाधारणाशेषविस्मयोत्पादिवैभवः । नायको मोक्षमार्गस्य दायकोऽभीष्टसम्पदाम् ॥७७ इत्यादिगणनातीतगुणोऽनेकान्त केतनः । निर्विकारोपधिर्देवः सयोगिपरमेश्वरः ॥७८ तद् ध्यान निश्चलीभूतचेताः सञ्चिन्तयेत्ततः । तन्मयीभूतमात्मानं स्थैर्यतः किन्न सिद्ध्यति ॥७९ इत्थं रूपस्थमाख्यातं मया ध्यानं सुनिर्मलम् । स्यादुगार्हस्थ्येऽपि केषाञ्चिदेतद् रुद्धाक्षचेतसाम् ॥८० ५२१ ( इति रूपस्थध्यानम् ) यदा यदा मनः साम्यलीनं दुर्ष्यानर्वाजितम् । सामायिकं भवेत्पुंसां सर्वकाले तदा तदा ॥८१ इत्यत्रैवार्हदर्चा च कैश्चित्पौरस्त्यसूरिभिः । गृहस्थानामनुष्ठाने नित्ये मुख्यतयोदिता ॥८२ देवानपूज्य यो भुङ्क्ते पात्रायान्धोऽप्रदाय च । आरम्भोत्थेन पापेन स गृही मुच्यते कथम् ॥८३ हैं, विष्णु हैं, अव्यक्तरूप हैं, हृषीकेश हैं, पुरुषोत्तम हैं, काम-हन्ता हैं, महादेव हैं, उमापति हैं, शंकर हैं, भुवनेश हैं, शिव हैं, त्रिलोचन हैं, दिगम्बर हैं, समन्तभद्र हैं, सुगत हैं, लोक-विजेता हैं, भगवान् हैं, जिन हैं, महाशक्तिके धारक हैं, स्वामी हैं, गणाधीश हैं, विनायक हैं, अन्धकार शत्रु हैं, जगत्के नेत्र हैं, भास्वान् हैं, लोक- बान्धव हैं, कान्तिमान् हैं, औषधीश्वर हैं, कलावान् हैं, कमलाप्रिय हैं । वाचस्पति हैं, सुरगुरु हैं, योगोश हैं, भूतनायक हैं, नित्य हैं, इनको आदि लेकर जो सहस्रों सार्थक नामोंसे संयुक्त हैं, तथा जो सर्वज्ञ, सर्वग, सार्व, सर्वदाता, सर्वदर्शी हैं, सर्व प्राणियोंके शरणभूत हैं, सर्व विद्याओंके महेश्वर हैं, अनन्त सुखमें निमग्न हैं, कृतार्थ हैं, सर्व अर्थवाले हैं, नो केवलforयोंकी समृद्धि से सम्पन्न हैं, जिनका शासन सिद्ध है, इन्द्रादिकोंके द्वारा सदा पूज्य हैं, जो चारों प्रकारके देवगणोंसे, चक्रवर्ती आदिकोंसे और विद्याधर और भूमिगोचरी मनुष्योंसे सदा स्तुत्य हैं, सर्वसे असाधारण और सबको विस्मय उत्पन्न करनेवाले वैभवसे युक्त हैं, मोक्षमार्गके नायक हैं, अभीष्ट सम्पदाओंके दायक हैं, इत्यादि अगणित गुणोंके धारक हैं, अनेकान्तकी ध्वजावाले हैं, विकार रहित हैं, परिग्रह - रहित हैं, ऐसे सयोगिपरमेश्वर तीर्थंकर देवको रूपस्थ ध्यान में निश्चलीभूत चित्तवाला ध्यान चिन्तवन करे और अपनी आत्माको तन्मयस्वरूप विचार करे । ध्यानकी स्थिरता से क्या सिद्ध नहीं होता है । इस प्रकार मैंने अति निर्मल रूपस्थ ध्यानको कहा । यह ध्यान गृहस्थपने में भी कितने ही इन्द्रिय और मनका निरोध करनेवाले श्रावकोंके होता है ॥ ६०-८० ॥ यह रूपस्थ ध्यान है । जब जब मनुष्यों का मन साम्यभाव में लीन होता है और आर्त- रौद्ररूप दुर्ध्यानोंसे रहित होता है तब तब सर्वकाल उनके सामायिक होती है ॥ ८१ ॥ इसी शिक्षाव्रतमें कितने ही प्राचीन आचार्योंने अर्हन्त देवकी पूजाको भी गृहस्थोंके नित्य कर्तव्यों में मुरू रूपमें कहा है ॥ ८२ ॥ जो मनुष्य अपने पूज्य देवोंकी पूजा न करके और पात्रोंको आहार न के भोजन करता है वह ६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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