Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 3
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 556
________________ श्री पं० गोविन्दविरचितं पुरुषार्थानुशासन गत श्रावकांचार ५२३ इत्थं मन्त्रजलस्नातः सकलीकरणादिवित् । त्रिशुद्धचा पूजयेद् देवान् शुद्धद्रव्येर्जलादिभिः ९६ जिनेन्द्र संहिताभ्यो ग्रन्थेभ्योऽचविधिः स्फुटम् । ज्ञात्वा भव्यैरनुष्ठेयः सव्यासो भवभीरुभिः ॥९७ जिनं पद्मनभेकोऽपि पथ्यगच्छत्समचितुप् । गजपादाहतो मृत्वा देवोऽभूद्भूतोदयः ॥ ९८ इत्यादिफलमालोच्य रतैर्भाव्यं जिनाचने । आवश्यकेषु चावश्यं भव्यैः सामायिकादिषु ॥९९ केवलं प्राप चक्रधाद्यो लोचानन्तरमेव यत् । ज्ञेयं सामायिकस्यैव माहात्म्यं तत्कृताद्भुतम् ॥१०० इत्थं समासेन मया प्रणीतां सामायिकाख्यां प्रतिमां सभेदाम् । दाति यः शुद्धमतिः सुयुक्ति भव्यार्थनीयां लभते स मुक्तिम् ॥१०१ इति पण्डितश्रीगोविन्दविरचिते पुरुषार्थानुशासने सामायिकोपदेशोऽयं पञ्चमोऽवसरः । अथ षष्ठोsaसरः अनम्यर्हतो वक्ष्ये प्रतिमाः प्रोषधादिकाः । अष्टौ स्पष्टीकृताशेषतत्त्वभेदानधच्छिदः ॥ १ स्यादष्टम्यौ चतुर्दश्यों मासे पर्वचतुष्टयम् । तत्रोपवसनं यत्तद् भाष्यते प्रोषधव्रतम् ॥२ भुक्त्वा पूर्वेऽह्नि मध्याह्ने त्यक्त्वाऽऽरम्भं कृतैनसाम् । गृहीतप्रोषध स्तिष्ठेव नुप्रेक्षा विचारयन् ॥३ षोडशहरा नित्थं सन्मनोवाग्वपुः क्रियः । स्थित्वाऽद्यात्पात्रदत्तान्नशेषमर्थेऽपरेऽहनि ॥४ इस प्रकार मंत्रित जलसे स्नान किया हुआ, सकलकरणादि विधिका वेत्ता गृहस्थ त्रियोगकी शुद्धिपूर्वक जलादि शुद्ध द्रव्योंसे अर्हन्त देवोंकी पूजा करे || ९६ ॥ भव-भीरु भव्य पुरुषोंको जिनसंहिता, इन्द्रनन्दिसंहिता आदि ग्रन्थोंसे विस्तार सहित पूजन की विधि जानकर नित्य पूजन करना चाहिए ।। ९७ ।। देखो - कमलसे भगवान्‌का पूजन करनेके लिए मार्ग में जाता हुआ मेढक श्रेणिकके हाथी के पैर से दब करके मरकर अद्भुत समृद्धि वाला देव हुआ ॥ ९८ ॥ पूजनका इत्यादि प्रकारसे उत्तम फल विचार कर भव्य पुरुषको जिन-पूजनमें और सामायिक आदि आवश्यकों में अवश्य ही संलग्न रहना चाहिए ||१९|| केश-लोचके अनन्तर ही आदि चक्रवर्ती भरत जो आश्चर्यकारक केवलज्ञानको प्राप्त हुए, वह सामायिकका ही माहात्म्य जानना चाहिए ॥ १०० ॥ इस प्रकार से जो शुद्ध बुद्धि वाला पुरुष मेरे द्वारा भेदसहित संक्षेपसे कही गई इस सामायिक नामकी तीसरी प्रतिमाको योग्य रीतिके साथ धारण करता है, वह भव्यजनोंके द्वारा प्रार्थनीय मुक्तिको प्राप्त करता है ॥ १०१ ॥ इस प्रकार पण्डित श्री गोविन्दविरचित पुरुषार्थानुशासन में सामायिक प्रतिमाका वर्णन करनेवाला यह पंचम अवसर समाप्त हुआ । अव अरिहन्तोंको नमस्कार प्रोषध आदिक आठ प्रतिमाओंको कहूँगा, ये प्रतिमाएँ श्रावकके समस्त तंव्यरूप तत्त्वोंके भेदको स्पष्ट रूपसे प्रकट करनेवाली और पापोंका छेदन करनेवाली हैं ।। १ ।। एक मासमें दो अष्टमी और दो चतुर्दशी ये चार पर्व होते हैं, इनमें उपवास करनेको प्रोपघव्रत कहा गया है ॥ २ ॥ पर्वके पहिले दिन मध्याह्नमें भोजन करके, पापोंको करनेवाले सर्व आरम्भको छोड़कर और प्रोपवत्रत ग्रहण कर भावनोंका चिन्तवन करते हुए किसी पवित्र, एकान्त स्थानमें रहे || ३ || पर्वके पूर्व वाले आधे दिनको रात्रिको और पर्वके पूरे दिन रातको तथा पर्व के आगे से मध्याह्न तकके समयको इस प्रकार सोलह पहरोंको मन वचन कायकी सत् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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