Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 3
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 562
________________ ५२९ श्री पं० गोविन्दविरचित पुरुषार्थानशासन-गत श्रावकाचार स्वभावं जगतोऽजलं संवेगायानुचिन्तय । वैराग्याय च कायस्य क्षणविध्वंसिनोऽशुः ॥६८ समस्तान् संसृतेर्हेतून हित्वा मुक्तेः समाश्रय । संसृतावेव यदुःखं मुक्तावेव सुखं परम् ॥६९ पुण्यानुमतिरित्याद्या दर्शिता शासनेऽर्हताम् । सद्धिर्भव्यस्य दातव्या हातव्या सर्वथाऽपरा ॥७० द्वयोमनुमति ज्ञात्वा दद्यात्पुण्यां न चापराम् । अयतात्मा समारम्भेणैव बंभ्रम्पते चिरम् ।।७१ (इत्यनुमतित्यागप्रतिमा १०) अथोद्दिष्टाऽऽहतित्यागप्रतिमा प्रतिमोच्यते । यां दधज्जायते मयं उत्तमो देशसंयतः ॥७२ धतुमिच्छति यः पूतां प्रतिमामुत्तमाममूम् । स मुण्डितशिरो भूत्वा गृहवासं परित्यजेत् ॥७३ गुर्वादेशेन कौपीनं विनान्यान्यखिलान्यपि । त्यजेद वासांसि शौचाय घरेत्पाणौ कमण्डलम् ॥७४ भिक्षापात्रकरश्चर्यावेलायां गृहपञ्चकान् । शुद्धमाहारमादाय भक्त्या दत्तमयाचितम् ॥७५ भुज्जीतकस्य कस्यापि श्रावकस्य सतो गृहे। एकबारमनारम्भमनुद्दिष्टमदूषणम् ॥७६ । क्वचिच्चैत्यालये शून्यभवने वा वनऽथवा । तिष्ठेद्दिवानिशं शश्वत्स्वाध्यायनिरतो वशो ॥७७ स्थावराणामपि प्रायः कुर्यादेवैष रक्षणम् । सानां रक्षणेऽमुष्य यत्नः किमुपदिश्यते ॥७८ आवश्यकेषु सर्वेषु सदा यत्तपरो भवेत् । महावत इवाशेषव्यापारविमुखः सुधीः ॥७९ परानीतरयं द्रव्यैभव्यजिनपतेः स्वयम्। कुर्यान्नित्यार्चनं नास्य यज्ञावावधिकारिता ॥८० रूपो जलसे आशारूपी अग्निको ज्वालाको शान्त करो, संसारके क्षणभंगुर और दुःखदायक स्वभावका निरन्तर संवेगकी वृद्धिके लिए चिन्तवन करो, वैराग्यकी वृद्धिके लिए क्षणविध्वंसी अशुचि कायका विचार करो, और संसार-वर्धक समस्त कारणोंको छोड़कर मुक्तिके कारणोंका आश्रय लो क्योंकि संसारमें ही परम दुःख है और मुक्तिमें ही परम सुख है । इत्यादि प्रकारको जो पुण्यानुमति अर्हन्तोंके शासनमें बतलायी गयी है, वह भव्य पुरुषके लिए सज्जनोंको देना चाहिए और दूसरी पापानुमतिको सर्वथा त्यागना चाहिए ॥ ६१-७० ॥ इस प्रकारसे दोनों प्रकारको अनुमतियोंको जानकर पुण्यानुमतिको देना चाहिए और पापानुमतिको नहीं देना चाहिए। क्योंकि, असंयत आत्मा समारंभसे ही संसारमें चिरकाल तक परिभ्रमण करता है ।। ७१ ॥ इस प्रकारसे दशवीं अनुमति त्याग प्रतिमाका वर्णन किया। अब उद्दिष्ट आहार त्याग प्रतिमा नामक ग्यारहवीं प्रतिमा कहते हैं-जिसे धारण करता हुआ मनुष्य उत्तम देशसंयत होता है ॥ ७२ ॥ जो श्रावक इस उत्तम पवित्र प्रतिमाको धारण करनेकी इच्छा करता है, वह शिर मुडा करके गृहवासका परित्याग करे ॥ ७३ ॥ तथा गुरुकी आज्ञासे लंगोटीके बिना अन्य सभी वस्त्रोंका त्याग करे और शौचके लिए हाथमें कमण्डलुको धारण करे ॥ ७४ ॥ गोचरीके समय भिक्षापात्रको हाथमें लेकर पांच घरों में जाकर बिना मांगे भक्तिसे दिये हुए शुद्ध आहारको लेकर किसी एक श्रावकके घर बैठकर एक बार आरम्भ-रहित, अनुद्दिष्ट और दूषण-रहित उस आहारका भोजन करे ॥ ७५-७६ ॥ भोजनके पश्चात् किसी चैत्यालयमें, शून्य भवनमें अथवा वनमें दिन-रात रहे और अपनी इन्द्रियोंको वशमें रखता हुआ सदा स्वाध्यायमें संलग्न रहे ।। ७७ ।। यह स्थावर जीवोंकी भी प्रायः रक्षा करता ही है, फिर उस जीवोंकी रक्षा करनेमें यत्न करनेका क्या उपदेश उसे दिया जाये ॥ ७८ ।। इस प्रतिमाधारीको सभी आवश्यककोंमें सदा प्रयत्नशील रहना चाहिए। यह सुबुद्धि श्रावक महाव्रती मुनिके समान समस्त सांसारिक व्यापारोंसे विमुख रहता है ॥ ७९ ॥ अन्य भव्य पुरुषोंके द्वारा लाये गये प्रासुक शुद्ध द्रव्योंसे जिनेन्द्र देवका स्वयं नित्य पूजन करे। किन्तु यज्ञ आदि करने में इसको अधिकार नहीं है ।। ८० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574