Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 3
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 565
________________ ५३२ श्रावकाचार-संग्रह युक्त्या गुरूक्तया खाद्यं स्वाद्यं च क्रमतस्त्यजेत् । हापयित्वाऽशनं चाथ व्युत्सृजेत् सकलं क्रमात् ॥१०५ तिष्ठेन्निश्चलमेकान्ते क्रमात् पेयं च हापयन् । त्यक्त्वा तदाविलं चाय स संस्तरगतो भवेत् ॥१०६ तत्रासीनो विना निद्रा सुप्तो वा रुद्धमानसः । स्मरेत्पश्चनमस्कारमहतो वाऽनिशं हृदि ॥१०७ अनुप्रेक्षा अनित्याचा यदि वा हृदि भावयेत् । लीनो भवेद विशुद्धात्मा पदस्थादिषु वा क्वचित् ॥१०८ क्षुत्पिपासातृणस्पर्शशीतवाताऽऽतपादिभिः । बाध्यमानोऽपि संक्लेशं न कुर्यान्निश्चलाशयः ॥१०९ बलाद्विक्षिप्यमाणं तैमनः सद्गुरुणोदितैः । शिक्षावाक्य येत्स्वास्थ्यं भवदुःखविभीरुकः ॥११० इत्थं परिसमाप्यायुः सुमतियंस्तनुं त्यजेत् । भुक्त्वा सुर-नरेश्वयं स याति पदमव्ययम् ॥१११ जीवितमरणाशंसे सुहृदनुरागं सुखानुबन्धं च । अत्र निदानेन समं पञ्च विमुञ्चेदतीचारान् ॥११२ मृत्वा समाधिना यान्ति सुगतावव्रता अपि । असमाधिमृतानां स्याद् वतिनामपि दुर्गतिः ॥११३ सिंहोऽतिकरभावोऽपि मुनिवाक्योपशान्तधीः । संन्यासविधिना मृत्वा देवो भूत्वा महद्धिकः ॥११४ ततश्च वाञ्छितान् भोगान् भुक्त्वा नृ-सुरजन्मसु । अष्टसु क्रमतो जातसुखाभ्युदयवृद्धिषु ॥११५ सिद्धार्थ-प्रियकारिण्योः पुत्रस्तीर्थकरोऽभवत् । देवः श्रीवर्धमानाख्यः शतेन्द्रप्रणतक्रमः ॥११६ समाधिमरणस्येति फलं सुविपुलं जनाः । ज्ञात्वा यत्नं तथा कार्य तदवश्यं यथा भवेत् ॥११७ जल) को भी क्रमसे घटाता हुआ एकान्त स्थानमें निश्चल भावसे रहे और समीपको सभी उपधिको छोड़कर संस्तर-गत हो जावे । अर्थात् संथारेके लिए जो घास आदिका बिस्तर गुरुने बताया हो उस पर निश्चलभावसे आसीन हो जावे ।। १०२-१०६ ।। उस पर आसीन होकर मनको बाहिरसे रोककर निद्राके बिना जागते हए, अथवा सोते हुए भी पंच नमस्कारमंत्रका, अथवा अर्हन्त देवका निरन्तर हृदयमें स्मरण करता रहे ।। १०७॥ अथवा अनित्य, अशरण आदि अनुप्रेक्षाओंकी हृदयमें भावना करे, अथवा कभी चित्तमें जैसी समाधिसे, तदनुसार वह विशुद्धात्मा पदस्थ-पिण्डस्थ आदि ध्यान में लीन रहे ॥ १०८ ॥ उस समय भूख, प्यास, तृणस्पर्श, शीत, वात, आतप आदिसे पोडित होनेपर भी संक्लेश न करे, किन्तु समभावमें निश्चल चित्त रहे ।। १०९ ॥ कदाचित् भूख-प्यास आदिसे बलात् पीड़ित हो कर मन चलायमान हो तो सद्,गुरुके द्वारा कहे गये शिक्षा-वचनोंसे संसारके दुःखोंसे भयभीत होता हुआ मनको स्वस्थ करे।। ११० । इस प्रकारसे जो सुबुद्धि पुरुष सावधानीके साथ आयु समाप्त कर शरीरको छोड़ता है, वह देवों और मनुष्योंके ऐश्वर्यको भोगकर अन्त में अव्यय अक्षय मोक्षपदको प्राप्त करता है ।। १११ ॥ इस सल्लेखनामें जीविताशंसा, मरणाशंसा, मित्रानुराग, सुखानुबन्ध और निदान इन पांच अतीचारोंको छोड़ना चाहिए ॥ ११२ ।। ___अवती भी पुरुष समाधिके साथ मरण करके सुगतिमें जाते हैं। किन्तु असमाधिसे मरनेवाले व्रती जनोंकी दुर्गति ही होती है ॥ ११३ ।। देवो-अत्यन्त क्रूर भाववाला सिंह भी मुनिके वचनोंसे उपशान्त चित्त होकर और संन्यासकी विधिसे मरकर महान् ऋद्धिका धारक देव हुआ ॥ ११४ ।। वहां पर मनोवांछित भोगोंको भोगकर तत्पश्चात् मनुष्यों और देवोंमें जन्म लेता हुआ आठों ही भवोंमें उत्पन्न हुए और अभ्युदयकी वृद्धिवाला होकर अन्तमें सिद्धार्थ राजा और प्रिय. कारिणी माताके श्री वर्धमान नामसे प्रसिद्ध और सौ इन्द्रोंसे पूजित चरण कमल वाला तीर्थंकर पत्र उत्पन्न हुआ ।। ११५-११६ ।। समाधिमरणका ऐसा महान् विशाल फल जानकर मनुष्योंको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574