Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 3
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 561
________________ ५२८ श्रावकाचार-संग्रह अथ नानुमति दद्यादवद्यास्रवभीरुकः । सुतादिभ्योऽपि वाणिज्यप्रमुखाणां कुकर्मणाम् ॥५४ कुवित्थं रत्नसंस्कारमित्थं स्वणं च संस्कुरु । धावनं रञ्जनं चेत्थं वस्त्राणां वत्स कारय ॥५५ हिङगुतैलतादीनां कुवित्थं क्रय-विक्रयो । अश्वादीनां विधेहीत्थं स्थूलीकरणपालने ॥५६ कर्णयेत्थं क्षमा तस्यामित्थं बीजं च वापय । कारयेत्थं वृति तत्थं च तसिञ्चनादिकम् ॥५७ कारयेत्थं ततो लावं धान्यस्य कुरु सञ्चयम् । प्रस्तावे विक्रयस्तस्य विधेयो विधिनाऽमुना ॥५८ 'इत्थं भूपतिराराध्य इत्थं पोष्याश्च सेवकाः । इत्याद्याऽनुमतिस्त्याज्या प्राज्याहन्मतवेदिभिः ॥५९ पापामनुमति हित्वा तां चतुर्गतिदुःखदाम् । पुण्यामनुमति दद्याद् वक्ष्यमाणाममुं सुधीः ॥६० नित्यमित्थं जिनेन्द्रार्चा शुद्धचा वाक्कायचेतसाम् । भक्त्या शुद्धः कुरु द्रव्यश्वन्दनप्रसवादिभिः ॥६१ गुरूणां कुरु शुश्रूषामित्थं पथ्याशनादिभिः । स्वाध्यायं च विधेहीथमित्थं संयममाचर ॥६२ तपः कुवित्थमित्यं च दानं देहि यथोचितम् । इत्थं पञ्चनमस्कारं स्मर सारसुखप्रदम् ॥६३ मैत्री सत्त्वेषु कुविथमित्यं गुणिषु मोदितम् । कृपां क्लिष्टेषु माध्यस्थ्यं सन्मानं चेत्थमाचर ॥६४ क्षमया जय कोपारि मादवेन स्मयं जय । निर्जयाऽऽर्जवतो मायां लोभं शौचेन निर्जय ॥६५ सत्येन नाशयासत्यं संयमेनाप्यसंयमम् । त्यागेनानागतं कर्म तपसा पूर्वसञ्चितम् ॥६६ ब्रह्मचर्येण कामारि निर्जयातीवदुर्जयम् । शान्तिमाशानलज्वालां नयाऽऽकिञ्चन्ययारिणा ॥६७ प्रतिमाका वर्णन किया। अब पापास्रवसे डरनेवाले श्रावकको वाणिज्य आदि खोटे कार्योंकी पुत्रादिके लिए अनुमति भी नहीं देनी चाहिए ।। ५४ ॥ हे वत्स, इस रत्नका संस्कार इस प्रकार करो, इस सोनेका संस्कार इस प्रकार करो, और वस्त्रोंका धोना और रंगना इस प्रकारसे करो, हींग तेल घी आदिका क्रय और विक्रय इस प्रकार करो, घोड़े आदिको मोटा-ताजा इस प्रकार बनाओ, उनका पालन इस प्रकार करो, भूमिको इस प्रकारसे जोतो, इस प्रकारसे बीज बोओ, खेतकी बाड़ी इस प्रकारसे कराओ, उस खेतमें जलकी सिंचाई इस प्रकार कराओ, इस प्रकारसे धान्यको कराओ और उसका कारसे संचय करो, मौके पर इस विधिसे उसकी विक्री करो, राजाकी इस प्रकारसे आराधना सेवा करनी चाहिए, सेवकोंका इस प्रकारसे पोषण करना चाहिए और इस प्रकार उनसे काम लेना चाहिए, इत्यादि अनुमतिका त्याग उत्तम अर्हन्मतके वेत्ताओंको करना चाहिए ।। ५५-५९ ।। इस प्रकारको चतुर्गतिके दुःखोंको देनेवाली पाप कार्यो की अनुमति छोड़कर बुद्धिमान् श्रावकको आगे कही जाने वाली इस प्रकारके पुण्य कार्योंकी अनुमति देनी चाहिए । ६० ।। हे वत्स, तुम्हें प्रतिदिन मन वचन कायको शुद्धि पूर्वक भक्तिके साथ चन्दन-पुष्प आदि शुद्ध द्रव्योंसे जिनेन्द्र देवको पूजा करनी चाहिए, गुरुजनोंकी पथ्य भोजन, औषधादिसे इस प्रकार शुश्रूषा करनी चाहिए, इस प्रकारसे स्वाध्याय करो, इस प्रकारसे संयमका पालन करो, इस प्रकारसे तप करो, इस प्रकारसे पात्रोंको यथायोग्य दान दो, इस प्रकारसे सार सुखको देने वाले पंचनमस्कार मंत्रका स्मरण करो, प्राणियों पर इस प्रकारसे मंत्री करो, गुणी जनों पर इस प्रकारका प्रमोद भाव रखो, दुःखी जीवों पर इस प्रकारसे दया रखो, विपरीत बुद्धिवालों पर इस प्रकारसे माध्यस्थ्य भाव रखो, लोगोंका इस प्रकारसे सम्मान करो, क्रोधरूपी शत्रुको क्षमासे जीतो, मानको मार्दवसे जीतो, आर्जव भावसे मायाको जीतो और शौच भावसे लोभको जीतो, सत्यसे असत्यका नाश करो, संयमसे असंयमको दूर करो, त्यागसे अनागत ( भविष्य कालीन ) कर्मसे बचो और तपसे पूर्व-संचित कर्मोका क्षय करो, अत्यन्त दुर्जय कामरूपी शत्रुको ब्रह्मचर्य से जीतो, आकिंचन्य इस प्रक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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