Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 3
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 559
________________ ५२६ श्रावकाचार-संग्रह दिने रताधितं कर्म निश्याहारं चतुर्विधम् । जिताक्षो यस्त्यजेत्तस्यावश्यं स्यात्सुगतिः परा ॥३० (इति दिवाब्रह्मचर्यप्रतिमा ६) अथ कश्चिद् गृहस्थोऽपि मुमुक्षुजितमन्मथः । सर्वथा ब्रह्मचर्येण स्वमलङकुरुते कृती ॥३१ स्मरतापोपशान्ति यो मैथुनेन चिकीर्षति । ज्वलन्तं सपिषा सोऽग्नि विध्यापयितुमिच्छति ॥३२ सर्वथा सुरतं यस्तु शुद्धबुद्धिः परित्यजेत् । मनोरोधाद् ध्रुवं तस्य मनोजाग्निः प्रशाम्यति ॥३३ निविशन्तोऽपि कल्पेशाः प्रवीचारसुखं चिरम् । न तृप्यन्ति सदा तृप्ताः कल्पातीतास्तदुज्झिताः ॥३४ चिरेणापि विरक्तिः स्यात्सेव्यमानेन मैथुने । सर्वानुभवसिद्धं न केनेदं मन्यते वचः ॥३५ मैथुने सकलान् दोषान् ब्रह्मचर्येऽखिलान् गुणान् । ज्ञात्वाऽत्र तवभावेन तद्धत्ते सत्तमोऽचलम् ॥३६ मनोवाक्कायसौस्थित्याद् ब्रह्मचर्यवतः सुखम् । यत्स्यान्न सुरते तस्य शतांशमपि जायते ॥३७ ब्रह्मचारी भवेद् वन्द्यो वन्द्यानामपि भूतले। स्तुत्यः स्यात्रिदशेशानां मान्यः स्याद् भूभुजामपि ॥३८ व्याप्नोत्येव ककुभ-चक्रं ब्रह्मचर्योद्भवं यशः । श्रेयस्तु स्वर्गतौ पुंसो नयत्येवानिवारितम् ।।३९ सतीरपि सतीनारी नरो न रमतेऽत्र यः । सोऽवश्यं रमते देवीदेवो भूत्वा चिरं दिवि ॥४० मामय॑सुखं लब्ध्वाऽतः परम्परया नरः । मुक्ति च लभते धायं ब्रह्मचर्यं तदुत्तमैः ।।४१ (इति ब्रह्मचर्यप्रतिमा ७) चर्यसे बीसती है। अतएव दिनमें तो मैथुन सेवन कार्यका और रात्रिमें चारों प्रकारके आहारका त्याग जितेन्द्रिय मनुष्यको अवश्य ही करना चाहिये । ऐसे पुरुषकी परम सुगति होती है ।।२९-३०।। इस प्रकार दिवा ब्रह्मचर्यनामक छठी प्रतिमाका वर्णन किया। - कोई मोक्षका इच्छुक कृती गृहस्थ कामविकारको जीतकर सर्व प्रकारसे ब्रह्मचर्य-द्वारा अपनी आत्माको अलंकृत करता है ।। ३१ ॥ जो मनुष्य काम-जनित सन्तापकी शान्ति मैथुनसेवनसे करना चाहता है, वह जलती हुई अग्निको घीसे बुझाना चाहता है ।। ३२ ॥ जो शुद्ध बुद्धि पुरुष मैथुनका सर्वथा त्याग कर देता है, उसकी कामाग्नि मनके निरोध द्वारा निश्चित रूपसे प्रशान्त हो जाती है ॥ ३३ ॥ कल्पवासी देव चिरकाल तक प्रवीचार सुखको भोगते हुए भी कभी तृप्त नहीं होते हैं। किन्तु काम-सेवनसे रहित कल्पातीत अहमिन्द्र सदा तृप्त रहते हैं ॥३४॥ चिरकाल तक भी मैथुनके सेवन करने पर विरक्ति नहीं होती है, यह सबका अनुभव-सिद्ध वचन कौन नहीं मानता है ।। ३५ ।। मैथुन-सेवनमें सभी दोषोंको और ब्रह्मचर्य-धारण करनेमें सभी गुणोंको जानकर सज्जनोत्तम मनुष्य मैथुनका त्याग कर दृढ़ ब्रह्मचर्यको धारण करते हैं ॥ ३६ ।। ब्रह्मचर्य वाले पुरुषके मन वचन कायको सुस्थिरतासे जो अनुपम सुख होता है, मैथुन-सेवनसे उसका शतांश भी नहीं होता है ।। ३७ ।। इस भूतल पर ब्रह्मचारी मनुष्य वन्दनीय पुरुषोंका भी वन्दनीय होता है। वह इन्द्रोंको भी स्तुत्य और राजाओंको भी मान्य होता हूँ ॥ ३८ ॥ ब्रह्मचर्य धारण करनेसे उत्पन्न हुआ यश सारे दिग-मंडलको व्याप्त कर देता है और उससे उत्पन्न हुआ श्रेय (पुण्य ) स्वर्गलोकमें तो नियमसे ले ही जाता है ॥ ३९ ॥ जो मनुष्य इस लोकमें उत्तम स्त्रियोंके होते हुए भी उनके साथ रमण नहीं करता है, वह परलोकमें स्वर्गमें देव होकर चिरकाल तक देवियोंके साथ अवश्य ही रमण करता है ।। ४० ॥ इसके पश्चात् वह मनुष्यों और देवोंके सुखोंको पाकर परम्परासे मुक्तिको प्राप्त करता है, अतः उत्तम पुरुषोंके यह ब्रह्मचर्य अवश्य ही धारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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