Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 3
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 544
________________ श्री पं० गोविन्दविरचित पुरुषार्थानुशासन-गत श्रावकाचार ५११ अथ शीलवतानिगुणवतत्रितयं शिक्षावतानां च चतुष्टयम् । सप्तशीलान्यमून्येभिवंतानां दृढता भवेत् ॥१३४ विधाय दिक्षु मर्यादां गम्यते यशस्वपि । आद्यं दिग्विरति म विज्ञेयं तद्गुणवतम् ॥१३५ नदी-नदीश-देशाद्रि-सरसी-योजनादिकाः । मर्यादा दिग्विभागानां विधेया विश्रुतां बुधः ॥१३६ तत ऊध्वं त्रसान् पाति स्थावरानप्यतो यतः । महावतफलं दत्ते तन्नुरेतद् गुणवतम् ॥१३७ यो लोभक्षोभितस्वान्तः स न धर्तुमिदं क्षमः । हित्वा लोभं ततो धत्ते सुघोदिग्विरतिव्रतम् ॥१३८ विस्मृतिः क्षेत्रवृद्धिश्चोर्वाऽवस्तिर्यग्व्यतिक्रमाः । हेया दिग्विरतो पश्चातीचाराश्चारुदर्शनैः ॥१३९ (इति दिग्विरतिः) दिनादौ तत्कृता सीमा यत्र संक्षिप्यते पुनः । तद्देशविरति म द्वितीयं स्याद् गुणवतम् ॥१४० . गृहाऽऽपणपुरग्रामवनक्षेत्रादिगोचरः । मतः क्षेत्रावधिः प्राज्ञः सुदेशविरतिवते ॥१४१ यामाहःपक्षमासतुचतुर्मासायनान्दगः । देशावकाशिके शोले मता कालावधिर्बुधैः ॥१४२ यो देशविरतिं नाम पत्ते शीलं सुनिमलम् । तदूवं सर्वसावद्याभावात्स स्यान्महावतः ॥१४३ पश्चात्र पुद्गलक्षेपं शब्द-रूपानुपातने । प्रेष्यप्रयोगानयने अतीचारांस्त्यजेद्बुधः ।।१४४ (इति देशविरतिः) परिग्रह परिमाणव्रतके अतीचार हैं ॥ १३३ ॥ अब शीलव्रतोंका वर्णन करते हैं-तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ये सात शील कहलाते हैं । इनसे अणुव्रतोंकी दृढता होती है ।। १३४ ।। दशों दिशाओंमें मर्यादा करके उसके भीतर जो गमनागमन किया जाता है वह दिग्विरति नामका प्रथम गुणव्रत जानना चाहिए ।। १३५ ।। नदी, समुद्र, देश, पर्वत, सरोवर और योजनादिकरूप दिग्विभागोंको प्रसिद्ध मर्यादा ज्ञानी जनोंको करनी चाहिए ।। १३६ ॥ दिशाओंकी मर्यादाके बाहिर दिग्वती श्रावक त्रस जीवोंकी भी रक्षा करता है और स्थावर जीवोंकी भी रक्षा करता है, अतः उस पुरुषको यह गुणव्रत महाव्रतका फल देता है ।। १३७ ।। जो पुरुष लोभसे क्षोभित चित्तवाला है, वह इस व्रतको धारण करनेके लिए समर्थ नहीं है । अतः बुद्धिमान् पुरुष लोभको छोड़कर दिग्विरति व्रतको धारण करता है ॥ १३८ । सीमाको विस्मृति, क्षेत्रको वृद्धि, ऊर्ध्व मर्यादा व्यतिक्रम, अधोमर्यादा व्यतिक्रम और तिर्यग् मर्यादा व्यतिक्रम ये पांच अतीचार दिग्विरतिव्रतमें सम्यग्दृष्टि जनोंको छोड़ना चाहिए ॥ १३९ ॥ (इस प्रकार दिग्विरतिव्रतका वर्णन किया) उस दिग्व्रतकी सीमा पुनः दिन, पक्ष आदिरूपसे संक्षिप्त की जाती है, वह देशविरतिनामका दूसरा गुणव्रत है ।। १४० ।। ज्ञानी जनोंने देशविरंतिव्रतमें घर, बाजार, ग्राम, बन, क्षेत्र आदिको विषय करनेवाली क्षेत्र मर्यादा कही है ॥ १४१ ॥ पहर, दिन, पक्ष, मास, ऋतु, अयन और वर्ष आदिको ज्ञानीजनोंने देशावकाशिक शीलमें कालमर्यादा कहा है ॥ १४२ ।। जो श्रावक देशविरतिनामक इस शीलको निरतिचार निर्मल धारण करता है, वह उस की हुई मर्यादाके बाहिर सर्व पापोंके अभावसे महाव्रती होता है ।। १४३ ॥ पुद्गलक्षेप, शब्दानुपात, रूपानुपात, प्रेष्यप्रयोग और आनयन ये पाँच इस व्रतके अतीचार हैं । ज्ञानी पुरुषको इसका त्याग करना चाहिए ।।१४४॥ (इस प्रकार देशविरतिव्रतका वर्णन किया) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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