Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 3
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 550
________________ श्री पं० गोविन्दविरचित पुरुषानुशासन-बत श्रावकाचार स्थितस्थितादयो भेदास्तस्य चत्वार ईरिता.। स्थितेन चिन्त्यते यत्राप्रशस्तं तत्स्थितस्थितम् ॥२४ ध्यायेद्यत्रोत्थितोऽशस्तं तद्भवेदुत्थितास्थितम्। प्रशस्तं चिन्तयेद्यत्र स्थितस्तत्स्यात्स्थितोत्थितम् ॥२५ तदुत्थितोत्थितं यत्रोत्थितः शस्तं विचिन्तयेत् । ज्ञात्वा हेये इहाऽद्य द्वे द्वे विधेये बुधैः परे ॥२६ चतुःपञ्चाशदुच्छ्वासाः प्रातव्युत्सर्ग ईरिताः । मध्याह्नर्धास्ततो ज्ञेयाः सायमष्टोत्तरं शतम् ॥२७ व्युत्सर्गे कालमर्यादां नित्येऽमू चित्तसत्तमाः । नैमित्तके तु विज्ञेयाः बहुधा परमागमात् ॥२८ पदस्थमथ पिण्डस्थं रूपस्थं वात्र चिन्त्यते । गृहस्थैर्न मतं ध्यानं तेषां रूपविजितम् ॥२९ गार्हस्थोऽपि नरो ध्यान यो रूपातीतमिच्छति । स प्रोर्नुनषति व्योम वामनोऽपि करेण सः॥३० ध्यातुमिच्छति यो रूपातीतं कान्तादिमानपि । स ग्रावनावमारुह्य तितीर्षति पयोनिधम् ॥३१ न ध्यायति पदस्थादि यो रूपातीतधीः गही। भुव एकपदेनैवाऽऽरुरुक्षति स भूभृतम् ।।३२ वक्ष्ये तन्मोक्षहेतुत्वे रूपातीतमहं समम् । ध्यानाम्यां धर्म-शुक्लाभ्यां सक्षेपेणव किश्चन ॥३३ किञ्चित्पदस्थपिण्डस्थरूपस्थानामनुक्रमात् । वक्ष्येऽत्र लक्षण साक्षाक्ति वीरो न चापरः ॥३४ मनोरोधेन पूण्यानां पदानामचिन्तनम । क्रियते यत्पदस्थं तद-ध्यानमाहर्मनीषिणः ।।३५ चाहिए ॥ २३ ॥ इस उत्सर्गके. स्थितस्थित आदि चार भेद कहे गये हैं। बैठकर जो अप्रशस्त चिन्तन किया जाता है, वह स्थितस्थित कायोत्सर्ग है ।। २४ ।। जहां पर खड़े होकर अप्रशस्त चिन्तन किया जाता है. वह उत्थितास्थित कायोत्सर्ग हैं जहाँ पर बैठकर प्रशस्त चिन्तन किया जाता है, वह स्थितोत्थित कायोत्सर्ग है ।। २५ ।। जहाँ पर खड़े रहकर प्रशस्त चिन्तन किया जाता है, वह उत्थितोत्थित कायोत्सर्ग है। इन चारोंमें आदिके दो हेय हैं और अन्तके दो ज्ञानियोंके द्वारा करने के योग्य हैं ॥ २६ ॥ प्रातःकालीन कायोत्सर्गमें चौपन उच्छ्वास कहे गये हैं, मध्याह्नके कार्यात्सर्गमें इससे आधे अर्थात सत्ताईस उच्छवास कहे गये हैं और सायंकालके कायोत्सर्गमें एक सौ आठ उच्छ्वास कहे गये हैं ।। २७ ।। यह काल मर्यादा नित्य किये जानेवाले कायोत्सर्गमें श्रेष्ठ चित्तवाले आचार्योंने कही है। किन्तु नैमित्तिक कायोत्सर्गों में तो कायोगको कालमर्यादा अनेक प्रकारको है, उसे परमागमसे जानना चाहिए ।। २८ ।। इसी सामायिक करने के समय गृहस्थोंके द्वारा पदस्थ, पिण्डस्थ, और रूपस्थ ध्यानका भो चिन्तन किया जाता है। किन्तु उनके रूपवजित अर्थात् रूपातीत ध्यान नहीं माना गया है ॥ ९ ॥ जो गृहस्थोमं रहता हुआ मनुष्य रूपातीत ध्यान करनेकी इच्छा करता है, वह बौना होता हुआ भी हाथसे आकाशको नाप लेनेकी इच्छा करता है ।। ३० ।। जो स्त्री आदिसे युक्त होते हुए भी रूपातीत ध्यान करनेकी इच्छा करता है वह पत्थरको नाव पर बैठ कर समुद्रको तैरनेकी इच्छा करता है ॥ ३१ ।। जो गृहस्थ पदस्थ आदि ध्यानोंको तो ध्याता नहीं है, किन्तु रूपातीत ध्यान करनेकी इच्छा करता है, वह एक पैरसे ही संसारके पवंतोंके ऊपर चढ़नेकी इच्छा करता है ।। ३२॥ इसलिए में इस रूपातीत ध्यानको मोक्षका कारण होनेसे धर्म और शुद्ध ध्यानके साथ ही संक्षेपमें कुछ कहूँगा ॥ ३३ ॥ यहाँ पर में पदस्थ, पिण्डस्थ और रूपस्थ ध्यानका कुछ लक्षण अनुक्रमसे कहूंगा। साक्षात् विस्तृत स्वरूप तो वीर भगवान् ही कह सकते हैं, दूसरा नहीं ॥ ३४ ॥ मनको रोककर जो पवित्र पदोंका अनुचिन्तन किया जाता है, उसे मनीषी पुरुषोंने पदस्थ नामका ध्यान कहा है ॥ ३५ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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