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भावकाचार-संग्रह पगंडाघासनस्यास्य सति कष्टेऽपि यसतः । चलनं नाल्पमप्येषाऽऽसनशुद्धिसदोरिता ॥१० तथा सामायिकस्थस्य जातु सत्यपि कारणे । न मनोविकृतिर्या सा मनःशुद्धिमता बुधैः ।।११ संज्ञाहुकारखात्कारत्यागः सामायिकेऽत्र या। सा वाकशुद्धिर्मता शुद्धवाग्भिः सद्बुद्धिगोचरा ॥१२ पादप्रसारिकामूर्वकम्पो हस्ताविचालनम् । क्रियते यन्न तत्रैषा वपुःशुद्धिजिनमता ॥१३ इत्थं सामायिके भव्यः सप्तशुद्धधन्वितो वशी। स्थिरो भवति यस्तस्य स्यादेनोनिर्जरा परा ॥१४ सर्वसावधनिमुक्तस्त्यक्तारम्भपरिग्रहः । गृही सामायिकस्थः स्यात्स चेलोऽपि महाव्रतः ॥१५ सामायिकभिदोऽन्याश्च नामाद्याः सन्ति शासने । शेषावश्यकनिर्देशोऽप्यत्रैव गृहिणो मतः ॥१६ स्तुतिनंतिः प्रतिक्रान्तिः प्रत्याख्योत्सर्ग इत्यमी । सामायिकोदयोऽहंद्भिः षोढाऽऽवश्यकमोरितम् ॥१७ स्याच्चतुविशतेस्तीर्थकराणां गुणकोनम् । स्तुतिः श्रीवृषभादीनां वीरान्तानामनुक्रमात् ॥१८ शिरोनत्याऽऽसनावर्तमनोवाक्कायशुद्धिभिः । वन्दना याहंदादीनां नतिः साऽर्हन्मते मता ॥१९ यन्निराकरणं शास्त्रोद्दिष्टयुक्त्या कृतैनसाम् । कथितेह प्रतिक्रान्तिः सा प्रतिक्रमणोद्यतैः ॥२० प्रागेव क्रियते त्यागोऽनागसानां यदेनसाम् । यमादिविधिना धोरैः प्रत्याख्यानं तदिष्यते ॥२१ निर्ममत्वेन कायस्य व्युत्सर्गो यो विधीयते । विधाय कालमर्यादामुत्सर्गः सोऽत्र दर्शितः ॥२२ ध्यानान्तर्भाव उत्सर्ग एवोक्तः प्रायशो यतः । न विना चिन्तनं किञ्चित्कायोत्सर्गे स्थिरीभवेत् ॥२३
वेत्ताओंने विनयको शुद्धि कहा है ॥ ९ ॥ कष्ट होने पर भी सामायिकके समय स्वीकार किये गये पयंकासन, पद्मासन आदि आसनसे अल्पमात्र भी चल-विचल नहीं होना, यह आसन शुद्धि कही गई है। १० ।। सामायिक करते समय किसी कारणविशेषके होने पर भी मनमें जरा भी विकार नहीं लाना, इसे विद्वानोंने मनःशुद्धि कहा है ॥ ११ ॥ सामायिक करते समय संकेत हुँकार, खात्कार आदिका त्याग करना, उसे शुद्ध वचन बोलने वाले ज्ञानियोंने सद्-बुद्धिको देने वाली वचन शुद्धि माना है ।। १२ । सामायिकके समय पैर पसारना, शिर कंपाना, और हाथ आदिका चलाना इत्यादिके नहीं करनेको जिनदेवने कायशुद्धि कहा है ॥ १३ ॥ इस प्रकार सात शुद्धियोंस युक्त, इन्द्रियोंको वशमें रखने वाला जो भव्य पुरुष सामायिकमें स्थिर होता है, उसके पापकर्मोंकी भारी निर्जरा होती है ।। १४ ।। सर्व पाप कार्योंसे रहित, आरम्भ-परिग्रहका त्यागो, सामायिकमें स्थित गृहस्थ वस्त्र-सहित होता हुआ भी महाव्रती है ॥ १५ ॥ जैन शासनमें नाम, स्थापना आदिक अनेक भेद सायायिकके कहे हैं वे, तथा शेष आवश्यकोंके करनेका निर्देश भी इसी प्रतिमामें गृहस्थके लिए माना गया है ।। १६ ।। चौबीस तीर्थंकरोंका स्तवन, नमस्कार, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, और कायोत्सर्ग और सामायिक गृहस्थके ये छह आवश्यक अर्हन्त देवने कहे हैं ॥ १७ ॥ ऋषभ देवसे लगाकर महावीर तकके चौबोस तोर्थंकरोंका अनुक्रमसे गुण कीर्तन करना स्तुति है।॥ १८ ॥ शिरोनति, आसन, आवर्त द्वारा और मन वचन कायकी शुद्धि द्वारा जो अर्हन्त सिद्ध आदिको वन्दना की जाती है, वह अर्हन्मतमें नति आवश्यक माना गया है ॥ १९ ॥ किये हुए पापोंका शास्त्रोक्त युक्तिसे जो निराकरण करना, वह प्रतिक्रमण करने में उद्यत आचार्योंने प्रतिक्रान्ति या प्रतिक्रमण कहा है ।। २० ।। भविष्य कालमें सम्भव पापोंका पहले ही जो त्याग यम-नियम आदिकी विधिसे किया जाता है, उसे धोर पुरुषोंने प्रत्याख्यान कहा है ॥२१॥ कालकी मर्यादा लेकर और ममता भाव से रहित होकर शरीरका जो त्याग किया जाता है, उसे यहाँ उत्सर्ग कहा गया है ।। २२ ।। प्रायः उत्सर्ग ध्यानके ही अन्तर्गत कहा गया है। कुछ भी चिन्तन किये बिना कायोत्सर्गमें स्थिर होना
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