Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 3
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 545
________________ ५१२ श्रावकाचार-संग्रह त्यागः सावद्ययोगानां योऽनर्थानां विधीयते । अनर्थदण्डविरतिव॑तं तद्-प्रतिभिर्मतम् ॥१४५ विसाटानमपध्यानं टःश्रतिः पापदेशन । प्रमादाचरणं चेत्यनाः पञ्चविधाः मताः॥१४६ विषपाशास्त्रयन्त्राग्निमुशलोदूखलादिनः । हिंसाकृतस्तुनो दानं हिंसादानमुदीरितम् ॥१४७ कथं परस्त्रिया योगः पुरध्वंसो रिपुक्षयः । दुश्चिन्तनं यदित्यादि तदपध्यानमुच्यते ॥१४८ रागादीनां विधात्रीणां भववृद्धिविधायिनाम् । दुःश्रुतीनां श्रुतिः प्रोक्ता दुःश्रुतिः श्रुतपारगैः ॥१४९ गवाश्वषण्ढतामित्थमित्थं सेवां कृषि कुरु । इत्याद्यवद्यकृत्कर्मोपदेशः पापदेशनम् ॥१५० वृथाम्बुसेचनं भूमिखननं वृक्षमोटनम् । फलपुष्पोच्चयादिश्च प्रमादाचार इष्यते ॥१५१ यत्नतोऽमी परित्याज्या अनर्था अर्थवेदिभिः । भेदा अनर्थदण्डस्य वक्ष्यन्तेऽन्ये च केचन ॥१५२ सारिकाशुककेक्योतुश्वपारापतकुक्कुटाः । पोष्या नेत्यादयो जातु प्राणिघातकृतोऽङ्गिनः ॥१५३ द्विपाच्चतुःपदानां तत्त्वङ्नखास्थ्नां च विक्रयम् ।। न कुर्यान्मधुमद्यास्त्रकाष्ठादीनां च सांहसाम् ॥१५४ विक्रीणीयान्न निपुणो लाक्षां नीली शणं विषम् । कुदालं शकटं सोरि हरितालं मनःशिलाम् ॥१५५ गुडखण्डेक्षुकापाकस्वर्णायःकरणादिकम् । चित्रलेपादिकर्मापि न निर्माताह धर्मधीः ॥१५६ मौखयंभोगानर्थक्यासमीक्षाधिकृतीः सुधीः । पञ्च कन्दर्पकौत्कुच्ये अतीचारांस्त्यजेदिह ॥१५७ __(इति अनर्थदण्डविरतिः) जो निरर्थक सावद्ययोगोंका त्याग किया जाता है; उसे इस व्रतके धारक पुरुषोंने अनर्थदण्डविरतिव्रत कहा है ॥ १४५ ॥ हिंसादान, अपध्यान, दुःश्रुति, पापोपदेश और प्रमादाचरण ये पाँच प्रकारके अनर्थदण्ड माने गये हैं ।। १४६ ।। विष, पाश (जाल), अस्त्र, यंत्र, अग्नि, मूसल, उखली आदि हिंसा करनेवाली वस्तुका देना हिंसादान कहा गया है ।। १४७ ।। परस्त्रीका संयोग कैसे हो, . नगरका विध्वंस और शत्रुका विनाश कैसे हो? इत्यादि प्रकारसे खोटा चिन्तवन करना अपध्यान कहा जाता है ॥ १४८ ॥ राग-द्वेष आदिको बढ़ानेवाली और संसारकी वृद्धि करनेवाली खोटी कथाओंका सुनना, इसे श्रुतके पारगामी आचार्योंने दुःश्रुति कहा है ॥ १४९ ॥ इस प्रकारसे बैल और घोड़ेको बधिया करो, इस प्रकारसे सेवा और खेती करो, इत्यादिरूपसे पापकारक कार्योंका उपदेश देना पापोपदेश नामका अनर्थदण्ड है ॥ १५० ॥ व्यर्थ जल सींचना, भूमि खोदना, वृक्षोंको मोड़ना, फल-फूलोंक। संचय आदि करना प्रमादाचार कहलाता है ।। १५१ ॥ प्रयोजनके वेत्ता पुरुषोंको ये पांचों अनर्थ दण्ड प्रयत्नके साथ छोड़ना चाहिए। इनके अतिरिक्त अनर्थ दण्डके अन्य अन्य जो भेद हैं, वे भी कहे जाते हैं ॥ १५२ ।। मैना, तोता, मोर, बिल्ली, कुत्ता, कबूतर, मुर्गा इत्यादि प्राणिघात करने वाले पशु-पक्षी कभी नहीं पालना चाहिए ॥ १५३ ।। दो पैर वाले दासीदास और पक्षी आदि, तथा चार पैर बाले गाय, बैल, भैंस आदिक इनकी तथा इनके चर्म, नख और हड्डीकी बिक्री न करे, तथा पाप-पूर्ण मधु, मद्य. अस्त्र-शस्त्र और काठ आदिको भी नहीं बेंचे। इसी प्रकार निपुण पुरुष लाख, नील, सन, विष, कुदाल, गाड़ी, हल, हरिताल, मैनशिल आदिको भी नहीं बेंचे। गुड़-खांड़, ईख-पाक, सोना-लोहा आदिका उत्पादन आदि भी न करे । और धर्म बुद्धि मनुष्य इस लोकमें चित्रलेप आदि कार्य भी नहीं करता है ।। १५४-१५६ ।। मौखर्य, भोग-उपभोगानर्थक्य, असमीक्ष्याधिकरण, कन्दर्प और कौत्कुच्य ये पांच अतीचार अनर्थदण्डविरति व्रतमें बुद्धिमानको छोड़ना चाहिए ॥ १५७ ॥ (इस प्रकार अनर्थदण्ड विरतिव्रतका वर्णन किया) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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