Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 3
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 541
________________ १०८ श्रावकाचार-संग्रह यदि स्त्रीरूपकान्तारे न पतन्ति नराध्वगः । तपोऽश्वेनाचिरावेव यान्ति मुक्तिपुरों तदा ॥९७ मनुः स्त्री नरके कश्चिन्न यातीति ध्रुवं विधिः । व्यधात्स्त्रीस्तनिवासाय मनोमोहकरीनृणाम् ॥९८ बलिनां न वशं येऽगुः श्रूयन्ते ते परैः शताः । नाबलानां तु ये जग्मुवंशं ते यदि पञ्चषाः ॥ ९९ स्यात्पातः स्त्रीतमित्राभिः श्वभ्राब्धौ सुदृशामदि । लाभिर्गतिर्मुक्तो सुगतीनां च रुध्यते ॥ १०० चरित्रं सुचरित्राणामपि लुम्पन्ति योषितः । जातु नातः परस्त्रीभिः संसजन्ति मुमुक्षवः ॥ १०१ वर्शनं स्पर्शनं शब्दश्रवणं प्रतिभाषणम् । रहः स्थिति च मुञ्चन्तु परस्त्रीभिर्वतार्थिनः ॥ १०२ इत्यादि युक्तिभिः शीलं जलं बघति निर्मलम् । देवानामपि पूज्याः स्युस्ते नराणां कथैव का ।। १०३ यथा पुंसां मतं शीलं परस्त्रीस ङ्गवर्जनात् । परभर्तृपरित्यागात्स्यात्तथैवेह योषिताम् ॥ १०४ परिणीताः स्त्रियो हित्वा मताः सर्वाः परस्त्रियः । सर्वेऽन्ये परभर्त्तार ते कान्तं विवाहितम् ॥१०५ साध्वीनामेक एवेशो मृते जीवति तत्र वा । नान्यो जातुचितः पुंसां न सङ्ख्यानियमः स्त्रियम् ॥१०६ जलति ज्वलनः कन्धिः स्थलति श्वति केसरी । पुष्पमालायते सर्पः स्त्री-पुंसां शीलधारिणाम् ॥ १०७ कभी नहीं होना चाहिए । स्त्रियोंके कटाक्षके विषय बने हुए हरि, हर आदिकने शीलको छोड़ा । अर्थात् स्त्रियों के सम्पर्कसे वे अपने शीलको सुरक्षित नहीं रख सके || ९६ || यदि मनुष्यरूपी पथिक स्त्रीके रूप-सौन्दर्यरूपी भयंकर वनमें न पड़ते, तो तपरूपी अश्वके द्वारा मुक्तिरूपी पुरी में शीघ्र ही अल्पकालमें पहुँच जाते ॥ ९७ ॥ कोई मनुष्य और स्त्री नरकमें नहीं जाते हैं, इस कारण से ही मानों विधाताने निश्चयसे मनुष्योंके मनको मोहित करनेवाली स्त्रियोंको नरक में निवास करनेके लिए बनाया है ॥ ९८ ॥ जो बलवानोंके वशमें नहीं हुए, ऐसे तो सैकड़ों मनुष्य सुने जाते हैं, किन्तु जो अबलाओं (बलहीन स्त्रियों) के वशमें न गये हों, ऐसे यदि मनुष्य सुने जाते हैं तो वे पाँच-सात ही हैं ॥ ९९ ॥ स्त्रीरूपी गहन अन्धकारवाली रात्रियोंके द्वारा सम्यग्दृष्टियों का भी नरकरूप समुद्र में पतन होता है । और स्त्रीरूपी अर्गलाओं ( सांकलों) से सुगतियोंकी तथा मुक्ति में जानेकी गति रोक दी जाती है ॥ १०० ॥ स्त्रियाँ उत्तम चारित्रवाले भी मनुष्योंके चारित्रका लोप कर देती हैं, इसी कारण मोक्षके इच्छुक पुरुष कभी भी परस्त्रियोंके साथ संसर्ग नहीं रखते हैं ।। १०१ ।। व्रतके अभिलाषी जनोंको स्त्रियों का देखना, स्पर्श करना, उनके शब्द सुनना, उनको उत्तर देना और उनके साथ एकान्तमें बैठना-उठना छोड़ देना चाहिए ।। १०२ ।। इत्यादि युक्तियोंके द्वारा मनुष्यों का शीलरूपी जल निर्मलताको धारण करता है और ऐसे मनुष्य देवोंके भी पूज्य होते हैं, फिर मनुष्यों की तो कथा ही क्या है ? अर्थात् मनुष्योंसे तो पूजे ही जाते हैं ।। १०३ || जिस प्रकारसे पुरुषोंके परस्त्री-संगमके छोड़नेसे शीलका संरक्षण माना जाता है, उसी प्रकार यहाँ परभर्तारके साथ संगमका त्याग करनेसे स्त्रियोंके भी शीलका संरक्षण माना गया है ।। १०४ ।। विवाहिता स्त्रियोंको छोड़कर शेष सभी परस्त्री मानी जाती हैं । इसी प्रकार विवाहित पुरुष को छोड़कर शेष सभी पुरुष पर-भर्त्तार माने जाते हैं || १०५ || सती-साध्वी स्त्रियोंका एक ही स्वामी होता है, उसके जीवित रहते हुए, या मर जानेपर कभी दूसरा स्वामी उचित नहीं माना जाता । किन्तु पुरुषों के स्त्री-सम्बन्धी संख्याका नियम नहीं है ॥ १०६ ॥ शीलधारी स्त्रियों और पुरुषोंके आगे ज्वलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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