Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 3
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 521
________________ vel श्रावकाचार-संग्रह त्रिवर्गोऽचतुर्वगें गृहिणां याति साध्यताम् । ततस्त्रिवर्गमुख्यत्वाद गृहिधर्मः पुरोच्यते ॥१३ जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेवादेकादशोविताः । भेदा गहस्थधर्मस्य प्रतिमाख्याः स्वयम्भवा ॥१४ यथाशक्ति विधीयन्ते गृहस्थैरनुक्रमागतम । सुवते न फलं ताहक यद्विनाऽनुक्रमं कृताः ॥१५ ते सम्यग्दर्शनं पश्चाद् व्रतं सामायिकं ततः । प्रोषधोऽतस्ततस्त्यागः सचित्तस्यारतं' दिवा ॥१६ सर्वथा ब्रह्मचयं च तयारम्भस्य वर्जनम् । परिग्रहानुमत्योश्चोद्दिष्टाहारस्य चेत्यमी ॥१७ तत्र सद्दर्शनं तावत् कथ्यते मूलतामितम् । वतादीनां विना येन सन्तोऽप्यन्ये वृथा गुणाः ॥१८ यथा मर्येषु सर्वेषु चक्रो शक्रः सुधाशिषु । व्रतशोलेषु सर्वेषु मुख्यं सद्दर्शनं तथा ॥१९ सति यस्मिन् ध्रुवं मुक्तिर्जायते ननु यद्विना। जन्मकोटिभिरप्येतदम्यं सद्दर्शनं न किम् ॥२० सुदेवगुरुधर्मेषु भक्तिः सद्दर्शनं मतम् । कुदेवगुरुधर्मेषु सा मिथ्यावृष्टिरुच्यते ॥२१। योऽपरीक्ष्यैव देवादीस्तत्र भक्ति करोति ना। रोरों सुवर्णमूल्येन स गृह्णन्निव वञ्च्यते ॥२२ देवादीन्नाममात्रेण यः साक्षादिति मन्यते । संजयैवार्कदुग्धं स भुङ्क्ते गोदुग्धवज्जडः ॥२३ देवः स एव यो दोषरष्टादशभिरुझितः । त्रैलोक्यं यश्च सालोकं व्यक्तं ज्ञानेन पश्यति ॥२४ साधन होनेसे में मुनियोंके धर्मका पीछे वर्णन करूंगा। पहिले श्रावकोंके धर्मको कहता हूँ सो सुनो ॥ १२ ॥ धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप चतुर्वर्गमेंसे गृहस्थोंके आदिका त्रिवर्ग ही साध्यताको प्राप्त होता है और त्रिवर्ग में धर्म ही मुख्य है, अतः पहिले गृहस्थ-धर्म कहा जाता है ।। १३ ।। जघन्य मध्यम और उत्कृष्टके भेदसे गृहस्थधर्मके प्रतिमा नामक ग्यारह भेद स्वयम्भू श्रीऋषभदेवने कहे हैं। भावार्थ-इन ग्यारह भेदोंमेंसे प्रारम्भके छह भेद जघन्य हैं, मध्यके तीन भेद मध्यम हैं और अन्तिम दो भेद उत्कृष्ट माने गये हैं ॥ १४ ॥ श्रावकके ये ग्यारह भेद अनुक्रमसे ही धारण किये जाते हैं, क्योंकि अनुक्रमसे धारण किये बिना ये वैसा अभीष्ट फल नहीं देते हैं, जैसा कि देना चाहिए ॥ १५ ॥ उन ग्यारह भेदोंमें पहिला सम्यग्दर्शन, दूसरा व्रत, तीसरा सामायिक, चौथा प्रोषध, पांचवां सचित्तका त्याग, छठा दिनमें स्त्रीसेवनका त्याग, सातवां सर्वथा यावज्जोवन ब्रह्मचर्य, आठवां आरम्भका त्याग, नवाँ परिग्रहका त्याग, दशवा अनुमतिका त्याग और ग्यारहवां उद्दिष्ट आहारका त्याग ये ग्यारह भेद हैं, जिन्हें कि प्रतिमा कहा जाता है ।। १६-१७ ।। इनमेंसे सर्वप्रथम व्रत आदि प्रतिमाओंके मूलताको प्राप्त सम्यग्दर्शनको कहा जाता है, जिसके कि बिना अन्य सर्व गुण होते हए भी व्यथं या निष्फल जाते हैं ॥१८॥ जिस प्रकार सर्व मनुष्योंमें चक्रवर्ती मुख्य है और अमृत-भोजी देवोंमें शक्र-सौधर्म स्वर्गका इन्द्र मुख्य है, उसी प्रकार सभी व्रत और शीलोंमें सम्यग्दर्शन मुख्य है ॥ १९ ॥ जिस सम्यग्दर्शनके होनेपर मुक्ति नियमसे प्राप्त होती है और जिसके बिना कोटि जन्म व्रत-तपश्चरणादि करने पर भी मुक्ति प्राप्त नहीं होती है, फिर वह सम्यग्दर्शन सभी व्रतादिमें अग्रणी या सर्व प्रधान कैसे नहीं है, अर्थात् अवश्य ही है ॥ २०॥ सुदेव, सद्-गुरु और वीतराग धर्ममें भक्ति सम्यग्दर्शन माना गया है। जिसकी भक्ति कुदेव, कुगुरु और कुधर्ममें होती है वह पुरुष मिथ्यादृष्टि कहा जाता है ॥ २१ ॥ जो मनुष्य बिना परीक्षा किये ही देवादिकी भक्ति करता है वह सुवर्णके मूल्यसे पीतलको ग्रहण करता हुआ ठगा जाता है ॥ २२ ।। जो मनुष्य नाममात्र सुनकर देव-गुरु आदिको मानता है, वह मूर्ख दूधका नाममात्र सुनकर गोदुग्धके स्थान पर आकड़ेका दूध पीता है ॥ २३ ॥ सच्चा देव वही है जो कि अठारह १. दिने मैथुनम् । २. पित्तलाम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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