Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 3
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 532
________________ श्री पं० गोविन्दविरचित पुरुषार्थानुशासन- गत श्रावकाचार जात्येश्वर्यतपोविद्यारूपशिल्पकुलस्मयाः । अभिमानस्मयश्चेति मदा अष्टौ जिनेर्मताः ॥१४४ ये पुण्यमशस्त्रीणां स्त्रीणां वदनपङ्कजे । रागिणो मधुपायन्ते कामेषुक्षतविग्रहाः ॥ १४५ विजृम्भज्वलनज्वालाज्वलल्लोचनभीषणाः । द्वेषाद्येनंन्ति दैत्यादीनरीमप्यदयालवः ॥ १४६ स्वजिज्ञासितमर्थं ये पृच्छन्त्यज्ञाः परानरम् । तृषाव्याप्ताः पिबन्त्यम्भो ये चाश्नन्ति क्षुधाशनम् ॥ १४७ सर्वसाधारणैर्दोषैरित्याद्यैर्ये कर्दाथताः । तेषु या देवधीर्घोरैर्देव मौढ्यं तदुच्यते ॥ १४८. सूर्याय वटाश्वत्थगोगजाश्वादिपूजनम् । गोमूत्रवन्दनं सिन्धु- सुरसिन्ध्वादिमज्जनम् ॥१४९ मृतानाममृतादीनां दानं स्नानं च सङ्क्रमे । कथ्यते कियतोत्यादिरहो लोकविमूढता ॥१५० विहितैर्हव्यकव्यार्थ प्राणिधातैर्न पातकम् । भूदेवैस्तपतैरत्र पितृतृप्तिः प्रजायते । १५१ प्राक्-कृतादेनसो गङ्गास्नानमात्रेण मुच्यते । सौदामिन्यादियज्ञेषु मद्यपानादि नाशुभम् ॥१५२ इत्याद्युक्ति कुसिद्धान्ता शिष्टकृत्योपदेशकाः । कुविद्या मन्त्रशक्त्या ये मोहयन्त्यत्र मानवान् ।। १५३. कुतपोभिर्द्वयं जन्म हारितं यैः कुबुद्धिभिः । निन्द्या निन्दन्ति ये जैनं धर्मं शर्मकरं नृणाम् १५४ भयाशास्नेहलोभादिहेतोस्तेषां यदादरः । भक्त्या विधीयते तज्ज्ञैः सा मता गुरुमूढता ॥ १५५ ज्ञात्वा यैरित्यमो दोषा हीयन्ते पचविशतिः । तेषां वर्शननैर्मल्यात्सर्वं सिद्धयति वाञ्छितम् ॥१५६ . निःशंकित आदि आठ गुण पहले विस्तारसे कहे गये हैं, उनके अभावरूप शंका, कांक्षा आदि आठ दोष यहाँ प्रतिपादन किये जानना चाहिए || १४३ ॥ जातिमद, ऐश्वर्यमद, तपमद, बिद्यामद, रूपमद, शिल्पमद, कुलमद और अभिमानमद ये आठ मद जिनदेवने कहे हैं ॥ १४४ ॥ नो पुण्यरूपी वृक्षके लिए शास्त्रके समान, स्त्रियोंके मुखरूपी कमलमें रागी होकर भौंरोंके समान उनके चारों ओर मँडराते रहते, हैं, कामके बाणोंसे जिनका शरीर विद्ध है, प्रज्वलित अग्निकी ज्वालाके समान जिनके नेत्र रोषसे भीषण रक्तवर्ण हो रहे हैं और द्वेष आदि कारणोंसे निर्दयी होकर जो दैत्य आदि शत्रुओंका घात करते हैं, जो स्वयं अजानकार होते हुए अपने जिज्ञासित ariat दूसरोंसे पूछते हैं, प्याससे पीड़ित होकर पानी पीते हैं और भूखसे पीड़ित होकर भोजन करते हैं, इस प्रकार जो उक्त दोषोंसे सर्व साधारण जनोंके समान पीड़ित एवं त्रसित हैं, उनमें जो देवबुद्धि होना उसे धीर-वीर पुरुष देवमूढ़ता कहते हैं ।। १४५ - १४८ ॥ सूर्यको अर्घ देना, बढ़पीपल, गौ, गज, अश्व आदिको पूजना, गोमूत्रकी वन्दना करना, समुद्र, गंगा आदिमें स्नान करना, मृत पुरुषोंको अमृत आदिसे श्राद्ध करके दान देना, संक्रान्तिके समय स्नान करना इत्यादि और कितनी बातें की जावें, ये सब लोक में प्रचलित मूढ़ता-पूर्ण कार्योंको लोकमूढ़ता कहा जाता है ।। १४९-१५० || यज्ञमें हवन करनेके लिए वेदविहित प्राणिघातसे पाप नहीं लगता, यहाँ पर ब्राह्मणोंको भोजनादिसे तृप्त करने पर पितरोंको तृप्ति होती है, पूर्वमें किये गये पाप गंगा स्नान करने मात्रसे छूट जाते हैं, सौदामिनी आदि यज्ञोंमें मद्यपानादि करना अशुभ नहीं है, इत्यादि युक्तियोंके द्वारा खोटे सिद्धान्त और अशिष्ट कार्योंके उपदेश देनेवाले लोग कुविद्या और कुमंत्रोंकी शक्ति से मनुष्योंको इस लोकमें मोहित करते हैं तथा जिन कुबुद्धि जनोंने खोटे तपोंको करके दोनों जन्मोंका विनाश कर दिया है और जो स्वयं निन्दनीय होते हुए मनुष्योंको सुखकारक जैनधर्मकी निन्दा करते हैं ऐसे कुगुरुओंका भय, आशा, स्नेह और लोभादिके कारण भक्ति आदर किया जाता है, उसे ज्ञानी जनोंने गुरुमूढ़ता माना है ।। १५१-१५५ ।। जो लोग इन पच्चीस दोषोंको जानकर उनका परित्याग करते हैं, उनके सम्यग्दर्शनकी निर्मलता होती है और उससे उनके सर्व मनोवांछित कार्य सिद्ध होते हैं ॥ १५६ ॥ Jain Education International ४१९ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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