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श्री पं० गोविन्दविरचित. पुरुषार्थानुशासन-गत श्रावकाचार नवनीतमपि त्याज्यं तद्बुधैः शुद्धबुद्धिभिः । अनन्ता जन्तवो यत्र जायन्तेऽन्तमुहर्ततः ॥३१ सकलं क्रमुकं हट्टचूर्ण शाकाद्यशोधितम् । अज्ञातमन्नमज्ञातफलं च पलदोषकत् ॥३२ क्षीराद्यज्ञातिपात्रस्थं नीरं प्रातरगालितम् । दधितक्रारनालं च द्विदिनं मद्यदोषकत ॥३३ विद्धं रूढं गतस्वादं हेयमन्नं च पुष्पितम् । आमाभ्यां दधि-तकाभ्यां संयुक्तं द्विदलं त्यजेत् ॥३४ शिम्बयः राकला विल्वफलं नीली कलिङ्गकम् । समच्छेदानि पत्राणि त्याजानि सकलान्यपि ॥३५ जन्तुजाताकुलं सर्व पत्र-पुष्प-फलादिकम् । कन्दाश्चाः परित्याज्याः परलोकसुखाथिभिः ॥३६ न चर्मपात्रगान्यत्ति सुदृक तैल-घृतान्यपि । पिबत्यम्भस्तु यस्तद्गं तस्य स्यान्नैव दर्शनम् ॥३७ प्रायश्चित्तादिशात्रेभ्यो भक्ष्याभक्ष्यविधि बुधाः । ज्ञात्वा सर्वाण्यभक्ष्याणि मुञ्चन्तु व्रतशुद्धये ॥३८ मद्यमांसाऽऽर्द्रचर्मास्थिप्रत्यक्ष्यविधासृजाम् । वीक्ष्य त्यक्तान्नभुक्तिश्च गृहिभोजनविघ्नकृत् ॥३९ द्यूतमांससुरावेश्याचौर्याऽऽखेटान्ययोषिताम् । सेवनं यद्धैस्तच्च हेयं व्यसनसप्तकम् ॥४० यः सप्तस्वेकमप्यत्र व्यसनं सेवते कुधीः । श्रावक स्वं ब्रवाणः स जने हास्यास्पदं भवेत् ॥४१ सेवितानि क्रमात्सप्त व्यसनान्यत्र सप्तसु । नयन्ति नरकेष्वेव तान्यतः सन्मतिस्त्यजेत् ॥४२
तेन पाण्डवाः नष्टा नष्टो मांसासनादबकः । मद्येन यादवाः नष्टाश्चारुदत्तश्च वेश्यया॥४३ चौर्याच्छीभूतिराखेटाद् ब्रह्मदत्तः परस्त्रियाः । रागतो रावणो नष्टो मत्वेत्येतानि सन्त्यजेत् !!४४
अर्थात् उनसे भी अधिक मूर्ख हैं ॥ ३० ॥
शुद्ध बुद्धिवाले विद्वानोंको नवनीत-भक्षण भी छोड़ना चाहिए, क्योंकि उसमें अन्तर्मुहूर्तमें ही अनन्त जीव उत्पन्न हो जाते हैं ।। ३१ ।। इसी प्रकार सर्व प्रकारकी सुपारी, हाट-बाजारका चूर्ण, अशोधित शाक आदि, अज्ञात अन्न, अज्ञात फल, इनका भक्षण भी मांसके दोषोंको करनेवाला है ।। ३२ ।। अजान जातिके पात्रमें स्थित दूध आदि, प्रातःकाल नहीं छाना हुआ जल, दो दिनका दही छांछ और कांजी मद्यके दोषोंको करती है ॥ ३३ ।। घुना हुआ, अंकुरित हुआ, स्वाद चलित, और पुष्पित अन्न भी हेय है। तथा कच्चे दही और छांछसे संयुक्त दो दलवाला अन्नभक्षण भी छोड़ना चाहिए ॥ ३४ ॥ सभी प्रकारकी सेम फली आदि, विल्वफल, नीली, कलींदा और समान छेद होनेवाले सभी पत्र-शाक भी त्यागना चाहिए ॥ ३५ ॥ जीव-जन्तुओंसे व्याप्त सर्व पत्र, पुष्प और फलादिक, तथा गीले कन्दमूल भी परलोकमें सुखके इच्छुक जनोंको छोड़ देना चाहिए ॥ ३६ ।। सम्यग्दष्टि जीव चर्मके पात्रमें रखे हुए तेल, घी को भी नहीं खाता है और चमड़ेमें रखा पानी भी नहीं पीता है। जो ऐसे पानीको भी पाता है, उसके सम्यग्दर्शन नहीं है, ऐसा समझना चाहिए ॥ ३७ ।। ज्ञानी जनोंको चाहिए कि प्रायश्चित्त आदि शास्त्रोंसे भक्ष्य और अभक्ष्यकी विधिको जानकर अपने व्रतकी शुद्धिके लिए सभी प्रकारके अभक्ष्योंको छोड़ देवें॥ ३८ ॥ ___मद्य, मांस, गीला चर्म, हड्डी, प्रत्यक्षमें प्राणिवध और रक्त इनको देखकर, तथा त्यागे हुए अन्नका भोजन करना भी गृहस्थके भोजनमें अन्तगय करनेवाला होता है ॥ ३९ ॥ द्यूत, मांस, मदिरा, वेश्या, चोरी, शिकार और अन्यकी स्त्रियोंका सेवन ये सात व्यसन भी ज्ञानियोंको छोड़ना चाहिए ।। ४० ।। जो कुबुद्धि यहां पर एक भी व्यसनका सेवन करता है, वह अपनेको श्रावक कहता हुआ लोगोंमें हास्यका पात्र होता है । ४१ । इस लोकमें क्रमसे सेवन किये गये व्यसन परलोकमें सातों ही नरकों में ले जाते हैं, इसलिए सुबुद्धिवाले पुरुषको उनका त्याग ही करना चाहिए ॥ ४२ ।। द्यूतसे पांडव नष्ट हुए, मांस-भक्षणसे बकराजा नष्ट हुआ, मद्यसे यादव
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