Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 3
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 533
________________ श्रावकाचार-संग्रह सुदृशस्तीर्थकर्तृत्वं लभन्ते नारका अपि । यान्ति वृक्षत्वमत्रेत्य कुदृशस्त्रिदशा अपि ॥ १५७ संसारे कुर्वतामत्र पञ्चधा परिवर्तनम् । हाऽनादौ कानि दुःखानि नाभूवन् दर्शनं विना ॥१५८ न सम्यक्त्वं विना मुक्तिर्वीर्घकालेऽपि देहिनाम् । मरीचिरत्र दृष्टान्तः ख्यातश्च क्रितनूरुहः ॥१५९ होत कथितविधानं दर्शनं ज्ञाततत्त्वा दधति विधुतदोषा निश्चलं ये स्वचित्ते । सुरनरपतिसौख्यं प्राप्य दुःप्रापमन्यैः शिवसुखमृषिसंसद्वल्लभं ते लभन्ते ॥ १६० इति पण्डितश्रीगोविन्द कविविरचिते पुरुषार्थानुशासने दर्शनप्रतिमाख्योऽयं तृतीयोऽवसरः परः ॥ अथ चतुर्थोऽवसरः ५०० प्रणिपत्याथ सर्वज्ञं वृषभं वृषवेशकम् । गृहस्थानां व्रताख्येयं द्वितीया प्रतिमोच्यते ॥१ शाखादीनि विना मूलं न भवेयुर्यथा तरोः । तथैव न व्रतानि स्युविना मूलगुणान् नृणाम् ॥२ तद्यथा - अष्टौ मद्यपलक्षौद्रपञ्चोदुम्बरवर्जनाः । गृहिमूलगुणाः प्रोक्ताः शासने श्रीजिनेशिनः ॥३ अर्थनाशो मतिभ्रंशो धर्मध्वंसो यशःक्षयः । यथा क्षणेन जायन्ते सा कथं पीयते सुराः ॥४ मोन निर्विवेकः स्यानिविवेकस्त्व कृत्यकृत् । अकृत्य द्भवेच्छ्वाभ्रः श्वाभ्रो दुःख्येव सन्ततम् ॥५ प्रवासः सर्वलक्ष्मीनां सङ्केतः सकलापदाम् । योगो निखिलदोषाणां मद्यपानेन जायते ॥ ६ सम्यग्दृष्टि नारकी भी वहाँसे निकलकर तीर्थंकरपना प्राप्त करते हैं और मिथ्यादृष्टि देव भी मर कर और इस लोकमें आकर वृक्षपनेको प्राप्त होते है ।। १५७ ॥ इस अनादि संसारमें पांच प्रकारके परिवर्तन करते हुए जीवोंके सम्यग्दर्शन के बिना हाय-हाय, कौन-कौनसे दुःख प्राप्त नहीं हुए हैं ॥ १५८ ॥ सम्यक्त्वके बिना दीर्घ कालमें भी प्राणियोंकी मुक्ति संभव नहीं है । इस विषय में. आदि चक्रवर्तीका पुत्र मरीचिका दृष्टान्त प्रसिद्ध है || १५९ || इस प्रकारसे ऊपर जिसका विधान किया गया है ऐसे सम्यग्दर्शनको जो तत्त्वज्ञानी पुरुष दोष रहित होकर निश्चल रूपसे अपने हृदयमें धारण करते हैं, वे देवेन्द्रों और नरेन्द्रोंके सुखोंको प्राप्त कर अन्त में अन्य मतावलम्बियों के द्वारा दुष्प्राप्य और साधु-परिषद्को प्रिय ऐसे मोक्षके सुखको प्राप्त करते हैं ॥ १६० ॥ इस प्रकार पण्डित श्री गोविन्दकविविरचित पुरुषार्थानुशासनमें दर्शन प्रतिमाका वर्णन करनेवाला तृतीय अवसर समाप्त हुआ । युग आदिमें सर्वप्रथम धर्मके उपदेश देनेवाले सर्वज्ञ श्री ऋषभदेवको नमस्कार करके अब व्रत नामकी यह दूसरी प्रतिमा कही जाती है ॥ १ ॥ जिस प्रकार मूलके बिना वृक्षको शाखा आदि नहीं उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार मूल गुणोंके बिना मनुष्योंके व्रत आदि भी नहीं हो सकते हैं ॥ २ ॥ वे मूलगुण इस प्रकार हैं-मद्य, मांस, मधु और पांच उदुम्बर फलोंको खानेका त्याग करना ये आठ मूलगुण जिनेन्द्र देवके शासन में कहे गये हैं ||३|| जिसके पीनेसे धनका नाश, बुद्धिकी भ्रष्टता, धर्मका ध्वंस और यशका क्षय क्षण मात्रमें होता है वह मदिरा लोगोंके द्वारा कैसे पी जाती है ? यह आश्चर्यकी बात है ॥ ४ ॥ मद्य -पानसे मनुष्य विवेक- रहित हो जाता है, विवेकरहित पुरुष अकृत्योंको करता है, अकृत्योंको करनेवाला नरकमें नारकी रूपसे उत्पन्न होता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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