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श्री पं० गोविन्दविरचित पुरुषार्थानुशासन-गत श्रावकाचार अधोमध्योर्ध्वलोकेशाः प्रणमन्तिस्म यं सदा । सर्वासाधारणैर्यश्च भूषितो गुणभूषणैः ॥२५
दोषाः क्षुत्तृण्मदः स्वेदः खेदो जन्म जरा मृतिः ।
आधिाधी रतिनिद्रा विषादो विस्मयो भयम् ॥२६ रागिता द्वेषिता मोहश्चेत्यष्टादश भाषिताः । सर्वसाधारणास्तस्मादेभिर्व्याप्तस्य नाप्तता ॥२७ दोषाभावो गुणाढयत्वं सार्वज्यं वीतरागता । यस्य कश्चित् स संसेव्यो देवः सन्मार्गनायकः ॥२८ स्वयम्भूः शङ्करो बुद्धः परात्मा पुरुषोत्तमः । वाक्पतिजिन इत्याद्याः पर्यायाः सर्वदर्शिनः ॥२९ अथ गुरु:-- विकोपो निर्मदोऽमायो विलोभो विजितेन्द्रियः । विज्ञाताशेषतत्त्वार्थः परमार्थपरिष्ठितः ॥३० दधाति ब्रह्मचर्य यस्त्रिशुद्धचा परदुर्द्धरम् । परीषहसहो धीर उपसर्गेऽपि दारुणे ॥३१ सर्वसङ्गविनिमुक्तः सर्वजन्तुदयापरः । नादत्ते सर्वथाऽदत्तं निर्ममो यस्तनापि ॥३२ अनैहिकफलापेक्ष्यं धर्म दिशति योऽङ्गिनाम् । प्रासुकं शुद्धमाहारं पाणिपात्रेऽत्ति यो वशी ॥३३ आशावासा विमुक्ताशः समो यः सुख-दुःखयोः । जीवितव्ये मृतौ लाभेऽलाभे हीनमहीनयोः ॥३४. इत्यादिगुणसम्पन्नो गुरुः स्व-परतारकः । सदा सद्दृष्टिभिर्मान्यो नान्यः स्वान्यप्रतारकः ॥३५
दोषोंसे रहित है और अपने ज्ञानसे अलोक-सहित त्रैलोक्यको व्यक्त रूपसे साक्षात् देखता है ॥२४॥ जिसे सदा ही अधोलोकके स्वामी धरणेन्द्र-असुरेन्द्रादिक, मध्यलोकके स्वामी नरेन्द्र-चक्रवर्ती आदि और ऊर्ध्वलोकके स्वामी इन्द्रादिक नमस्कार करते हैं और जो सभी असाधारण गुणरूप भूषणोंसे आभूषित है, वही सच्चा देव है ॥ २५ ॥ जिसके क्षुधा, तृषा, मद, स्वेद खेद, जन्म, जरा, मरण, आधि, व्याधि, रति, निद्रा, विषाद, विस्मय, भय, राग, द्वेष और मोह ये अठारह दोष नहीं हैं वही सच्चा देव है। ये सर्व जनोंमें पाये जानेवाले साधारण दोष कहे गये हैं। जो इन दोषोंसे व्याप्त है, उस पुरुषके आप्तपना नहीं हो सकता है ।। २६-२७ ॥ जिसके उक्त दोषोंका अभाव है, लोकोत्तर अतिशय और अनन्त चतुष्टय आदि गुणोंसे सम्पन्नता है, सर्वज्ञता है और वीतरागता है और जो सन्मार्गका नेता है, ऐसा जो कोई भी पुरुष है, वह सच्चा देव है और उसकी ही सम्यक् प्रकारसे सेवा-उपासना करनी चाहिए ।। २८ ।। उसी सर्वदर्शीके स्वयम्भ, शंकर, बुद्ध, परमात्मा, पुरुषोत्तम, वाचस्पति ( बृहस्पति ) और जिन इत्यादि पर्यायवाची नाम हैं ।। २९ ॥
अब गुरुका स्वरूप कहते हैं-जो क्रोध-रहित है, मद-रहित है, माया-रहित है, लोभ-रहित है, जितेन्द्रिय है, समस्त प्रयोजनमत तत्त्वोंको जाननेवाला है, परमार्थ जो मोक्ष उसके मार्गमें अवस्थित है, जो परम दुर्धर ब्रह्मचर्यको मन, वचन, कायकी शुद्धिसे धारण करता है, परीषहोंको सहन करता है, भयंकर उपसर्ग आने पर भी धीर वीर है, सर्व परिग्रहसे विनिमुक्त है, सर्व जन्तुओंकी दया करने में तत्पर है, जो बिना दी हुई वस्तुको सर्वथा ग्रहण नहीं करता है, जो अपने शरीरमें भी ममतासे रहित है, जो इस लोक और परलोक फलकी आकांक्षाके बिना ही जीवोंको धर्मका उपदेश देता है, जो प्रासुक शुद्ध आहारको पाणि पात्रमें खाता है, इन्द्रियोंको वशमें रखता है, दिशाएँ ही जिसके वस्त्र हैं, अर्थात् दिगम्बर है, आशाओंसे विमुक्त है, सुख और दुःखमें समान है, जीवन-मरण में, लाभ-अलाभमें और उच्च-नीच में समभावी है, इत्यादि गुणोंसे जो सम्पन्न है, स्व और परका तारक है, वही सच्चा गुरु है और वही सदा सम्यग्दृष्टियोंके द्वारा मान्य है। किन्तु ज़ो उक्त गुणोंसे रहित है और स्व-परका प्रवंचक है, वह गुरु माननेके योग्य नहीं है ।। ३०-३५ ।।
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