Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 3
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 527
________________ ४९४ श्रावकाचार-संग्रह देवाद्दोषेऽपि सजाते संयतानां महात्मनाम् । तस्याप्रकाशनं यत्तत्प्रणीतमुपगृहनम् ॥८२ मुकतैव वरं पुंसां नान्यदोषोक्तिपाटवम् । यशोघातकतः पापं गरीयः प्राणघातकात् ॥८३ स्वगणान् परदोषांश्च अवतः पातकं महत् । परस्तवं स्वनिन्दां च कुर्वतस्तु महान् वृषः ।।८४ यो निन्द्यानपि निन्दन्ति तेऽपि यान्तीह निन्द्यताम् । अनिन्द्यनिन्दकानां तु दुर्गति परा गतिः ।।८५ मत्वेति सुकृती कुर्यात्सतां दोषोपगृहनम् । धर्मोपबृंहणं चात्र यः स स्यादुपगृहकः ॥८६ तिरश्चक्रे चुरादोषं यो मायाब्रह्मचारिणः । जिनभक्तस्य तस्यात्र जैर्वाच्या श्रेष्ठिनः कथा ॥८७ ( इत्युपगृहनम् ) मोक्षमार्गात्परिभ्रश्यन्नात्माऽन्यो वा सुयुक्तिभिः । स्थैर्य यन्नीयते तत्र तत्स्थितीकरणं मतम् ।।८८ भ्रष्टस्य तु ततोऽन्यस्य स्वस्य वा तत्र यत्पुनः । प्रत्यवस्थापनं प्रोक्तं तत्स्थितीकरणं बुधैः ।।८० परिभ्रश्याहवुद्दिष्टान्मोक्षमार्गात्सतो जनान् । पततो दुर्गतौ जातु न दयालुरुपेक्षते ॥९० येनाऽऽलस्यादिभिर्मार्गभ्रष्टो लोक उपेक्षितः । तस्य दर्शननर्मल्यं प्रमत्तस्य कुतस्तनम् ॥९१ रिपुभिः कामकोपाद्यैश्चाल्यमानं सुमार्गतः । सुयुक्तिभिः स्थिरीकुर्यात्स्वमन्यं च सुदर्शनः ॥९२ मार्गाद भ्रश्यति योऽक्षार्थसुखलेशाशया जडः । दुःखपाथोधिनिर्मग्नश्चिरमास्ते स दुर्गतौ ॥९३ भी जो मढ़ताको प्राप्त नहीं हुई, उस रेवती रानीकी कथा इस अंगमें उदाहरण है ॥ ८१ ॥ " (इस प्रकार अमूढदृष्टि अंगका वर्णन किया ) संयमी महापुरुषोंके दैववश किसी दोषके हो जाने पर भी उसे प्रकाशित नहीं करना सो उपगूहन अंग कहा गया है । ८२ ।। मनुष्योंके गंगापना अच्छा है, किन्तु अन्यके दोष-कथनमें कुशलता होना अच्छा नहीं है। क्योंकि किसी प्राणीके प्राण-धात करनेकी अपेक्षा उसके यशका धात करना भारी पाप है ।। ८३ ।। अपने गुणोंको और दूसरोंके दोषोंको कहनेवाले मनुष्यके महापापका संचय होता है। किन्तु दूसरोंके गुणोंकी प्रशंसा करनेवाले और अपने दोषोंकी निन्दा करनेवाले मनुष्यके महान् धर्म प्रकट होता है ।। ८४ ।। जो निन्दा-योग्य भी जनोंकी निन्दा करते हैं, वे इस लोकमें निन्दाको पाते हैं फिर जो निन्दाके योग्य नहीं है, ऐसे उत्तम पुरुषोंकी निन्दा करते हैं उनकी तो दुर्गतिके सिवाय दूसरी गति ही नहीं है ।। ८५ ॥ ऐसा जानकर सुकृती जनोंको सज्जनोंके दोषोंका उपगूहन करना चाहिए और अपने धर्मका उपवृंहण ( संवर्धन ) करना चाहिए। वही उपगूहन अंगका धारक है ॥ ८६ ॥ जिसने मायावी ब्रह्मचारीके चोरी करनेके दोषको छिपा दिया, उस जिनभक्त सेठकी कथा ज्ञानियोंको यहाँ पर कहनी चाहिए ॥ ८७ ।। (इस प्रकार उपगूहन अंगका वर्णन किया ) __ मोक्षमार्गसे भ्रष्ट होते हुए अपने-आपको अथवा अन्य पुरुषको सुयुक्तियोंके द्वारा जो पुनः मोक्षमार्गमें स्थिर किया जाता है, वह स्थितीकरण अंग माना गया है ।। ८८ ॥ सन्मार्गसे भ्रष्ट हुए अन्यको, अथवा अपनेको जो पुनः उसमें अवस्थापित किया जाता है. उसे ज्ञानियोंने स्थितीकरण कहा है ।। ८९ ॥ अर्हद्-उपदिष्ट मोक्षमार्गसे भ्रष्ट होते हुए और दुर्गतिमें गिरते हुए जीवोंकी दयालु पुरुष कभी भी उपेक्षा नहीं करता है ।। ९० ॥ जो पुरुष आलस्य आदिसे मार्गभ्रष्ट लोगोंकी उपेक्षा करता है उस प्रमत्त पुरुषके सम्यग्दर्शनकी निर्मलता कैसे संभव है ॥ ९१ ॥ सम्यग्दृष्टि जीवको चाहिए कि काम-क्रोधादि अन्तरंग शत्रुओंके द्वारा सुमार्गसे चलायमान अपने आपको और अन्य पुरुषको सुयुक्तियोंके द्वारा पुनः सुमार्गमें स्थिर करे ।। ९२ ॥ जो मूर्ख मनुष्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574