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श्री पं० गोविन्दविरचित पुरुषार्थानुशासन-गत श्रावकाचार इत्थं पथ्याभिरर्थ्याभिः सूक्तिभिर्यः परं स्थिरम् ।
मार्गे स्वं वा करोति स्यात्स स्थिरीकरणानाभत् ॥९४ स्थिरीचकार यो मार्गे पुष्पडालमुनि मुनिः । तस्य श्रीवारिषेणस्य कथा वाच्याऽत्र सत्तमैः ॥९५
(इति स्थिरीकरणम् ) पत्स्वास्थ्यकरणं साराचाराणामनगारिणाम् । गृहिणां च यथायोग्यं तद्वात्सल्यमुदीरितम् ॥९६ आदृतिावृतिभक्तिः सत्कृत्युपकृती स्तुतिः । भेदा इत्यादयो ज्ञेया वात्सल्याङ्गस्य वत्सलः ॥९७ सम्यग्दृग्ज्ञानचारित्रतपःसाधुषु साधुषु । धत्ते निर्व्याजबुद्धया यो विनयं साऽऽदृतिर्मता ॥९८ आचार्यादिषु यो रोगहरणादिक्रियाविधिः । बुधैविधीयतेऽजलं व्यावृतिरभिधीयते ॥९९ । देवे विरागसर्वज्ञे सूक्तियुक्तियुते श्रुते । योऽनुरागो गुरौ ग्रन्थमुक्ते सा भक्तिरुच्यते ॥१०० निग्रन्थेषु पुलाकादिपञ्चभेदेषु यज्जनः । क्रियते पूजनं भक्त्या साऽत्र सत्कृतिरिष्यते ॥१०१ स्वयं विद्यार्थसामर्थ्यः क्रियते यः परेण वा । परस्य यत्प्रतीकार उपकारः स कथ्यते ॥१०२ यदहत्सिद्धसूरीशपाठकषिगुणावले । कीर्तनं क्रियते शश्वत् कृतिभिः सा मता स्तुतिः १०३ इत्थमित्यादिभिर्योगैर्यो वात्सल्यपरो भवेत् । स वत्सलः सुधर्मायामिन्द्रेणापि प्रणूयते ॥१०४ जहाराकम्पनाचार्यसङ्घविघ्नं क्षणेन यः । बलिमन्त्रिकृतं तस्य विष्णोरत्र कथोच्यताम् ॥१०५
(इति वात्सल्यम्) इन्द्रिय-विषयक सुख-लेशकी आशासे मार्ग-भ्रष्ट होता है, वह दुःखरूप समुद्रमें डूबकर चिरकाल तक दुर्गतिमें पड़ा रहता है ।। ९३ ।। इस प्रकारको पथ्य और अर्थ-पूर्ण सूक्तियोंके द्वारा जो सन्मार्गमें अपने आपको, या परको स्थिर करता है, वह स्थिरीकरण अंगका धारक जानना चाहिए ॥ ९४ ॥ जिसने पुष्पडाल मुनिको मोक्षमार्गमें स्थिर किया, उन श्रीवारिषेण मुनिकी कथा यहाँ पर ज्ञानियोंको कहनी चाहिए ॥ ९५॥
(इस प्रकार स्थिरीकरण अंगका वर्णन किया) जो सारभूत श्रेष्ठ आचरण वाले मुनियोंका और गृहस्थोंका यथायोग्य कुशल-क्षेमका कार्य किया जाता है, वह वात्सल्य कहा गया है ।। ९६ ॥ आदृति (आदर), व्यावृति (वैयावृत्य), भक्ति, सत्कार, उपकार, और स्तुति (प्रशंसा) इत्यादि सर्वभेद वत्सल पुरुषोंको वात्सल्य अंगको जानना चाहिए ॥ ९७ ॥ सम्यग्दर्शन, ज्ञान चारित्र और तपके साधक साधुजनों पर जो निश्छल बुद्धिसे विनय रखता है वह आइति मानी गई है ।। ९८ ॥ आचार्य, उपाध्याय आदिमें रोगादिके होने पर जो ज्ञानियोंके द्वारा रोग दूर करनेकी नित्य क्रिया विधि की जाती है, वह व्यावृति कही जाती है ॥ ९९ ।। वीतराग सर्वज्ञ देवमें, सूक्ति और युक्तिसे युक्त शास्त्र में और परिग्रह विमुक्त गुरुमें जो अनुराग किया जाता है, वह भक्ति कही जातो है ।। १०० ।। जो मनुष्योंके द्वारा पुलाक-बकुश आदि पांच भेद वाले निर्ग्रन्थोंमें भक्तिसे पूजन किया जाता है, वह यहां सत्कृति कही गई है ॥ १०१॥ जो स्वयं विद्या, धन और सामर्थ्य द्वारा, या दूसरेके द्वारा अन्यका प्रतीकार किया या कराया जाता है वह उपकार कहा जाता है ॥ १०२ ।। जो अर्हन्त सिद्ध आचार्य उपाध्याय और साधुओंको गुणावलीका कृतीजन सदा कीर्तन करते हैं, वह स्तुति मानी गई है ॥ १०३ ॥ इस प्रकार इन उपर्युक्त एवं अन्य योगोंसे जो गुणीजनोंपर वात्सल्यका धारक होता है, वह वत्सल पुरुष सुधर्मा सभामें सौधर्म इन्द्रके द्वारा स्तुतिको प्राप्त होता है ।। १०४॥ जिसने बलिमंत्री द्वारा
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