Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 3
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 528
________________ २५ श्री पं० गोविन्दविरचित पुरुषार्थानुशासन-गत श्रावकाचार इत्थं पथ्याभिरर्थ्याभिः सूक्तिभिर्यः परं स्थिरम् । मार्गे स्वं वा करोति स्यात्स स्थिरीकरणानाभत् ॥९४ स्थिरीचकार यो मार्गे पुष्पडालमुनि मुनिः । तस्य श्रीवारिषेणस्य कथा वाच्याऽत्र सत्तमैः ॥९५ (इति स्थिरीकरणम् ) पत्स्वास्थ्यकरणं साराचाराणामनगारिणाम् । गृहिणां च यथायोग्यं तद्वात्सल्यमुदीरितम् ॥९६ आदृतिावृतिभक्तिः सत्कृत्युपकृती स्तुतिः । भेदा इत्यादयो ज्ञेया वात्सल्याङ्गस्य वत्सलः ॥९७ सम्यग्दृग्ज्ञानचारित्रतपःसाधुषु साधुषु । धत्ते निर्व्याजबुद्धया यो विनयं साऽऽदृतिर्मता ॥९८ आचार्यादिषु यो रोगहरणादिक्रियाविधिः । बुधैविधीयतेऽजलं व्यावृतिरभिधीयते ॥९९ । देवे विरागसर्वज्ञे सूक्तियुक्तियुते श्रुते । योऽनुरागो गुरौ ग्रन्थमुक्ते सा भक्तिरुच्यते ॥१०० निग्रन्थेषु पुलाकादिपञ्चभेदेषु यज्जनः । क्रियते पूजनं भक्त्या साऽत्र सत्कृतिरिष्यते ॥१०१ स्वयं विद्यार्थसामर्थ्यः क्रियते यः परेण वा । परस्य यत्प्रतीकार उपकारः स कथ्यते ॥१०२ यदहत्सिद्धसूरीशपाठकषिगुणावले । कीर्तनं क्रियते शश्वत् कृतिभिः सा मता स्तुतिः १०३ इत्थमित्यादिभिर्योगैर्यो वात्सल्यपरो भवेत् । स वत्सलः सुधर्मायामिन्द्रेणापि प्रणूयते ॥१०४ जहाराकम्पनाचार्यसङ्घविघ्नं क्षणेन यः । बलिमन्त्रिकृतं तस्य विष्णोरत्र कथोच्यताम् ॥१०५ (इति वात्सल्यम्) इन्द्रिय-विषयक सुख-लेशकी आशासे मार्ग-भ्रष्ट होता है, वह दुःखरूप समुद्रमें डूबकर चिरकाल तक दुर्गतिमें पड़ा रहता है ।। ९३ ।। इस प्रकारको पथ्य और अर्थ-पूर्ण सूक्तियोंके द्वारा जो सन्मार्गमें अपने आपको, या परको स्थिर करता है, वह स्थिरीकरण अंगका धारक जानना चाहिए ॥ ९४ ॥ जिसने पुष्पडाल मुनिको मोक्षमार्गमें स्थिर किया, उन श्रीवारिषेण मुनिकी कथा यहाँ पर ज्ञानियोंको कहनी चाहिए ॥ ९५॥ (इस प्रकार स्थिरीकरण अंगका वर्णन किया) जो सारभूत श्रेष्ठ आचरण वाले मुनियोंका और गृहस्थोंका यथायोग्य कुशल-क्षेमका कार्य किया जाता है, वह वात्सल्य कहा गया है ।। ९६ ॥ आदृति (आदर), व्यावृति (वैयावृत्य), भक्ति, सत्कार, उपकार, और स्तुति (प्रशंसा) इत्यादि सर्वभेद वत्सल पुरुषोंको वात्सल्य अंगको जानना चाहिए ॥ ९७ ॥ सम्यग्दर्शन, ज्ञान चारित्र और तपके साधक साधुजनों पर जो निश्छल बुद्धिसे विनय रखता है वह आइति मानी गई है ।। ९८ ॥ आचार्य, उपाध्याय आदिमें रोगादिके होने पर जो ज्ञानियोंके द्वारा रोग दूर करनेकी नित्य क्रिया विधि की जाती है, वह व्यावृति कही जाती है ॥ ९९ ।। वीतराग सर्वज्ञ देवमें, सूक्ति और युक्तिसे युक्त शास्त्र में और परिग्रह विमुक्त गुरुमें जो अनुराग किया जाता है, वह भक्ति कही जातो है ।। १०० ।। जो मनुष्योंके द्वारा पुलाक-बकुश आदि पांच भेद वाले निर्ग्रन्थोंमें भक्तिसे पूजन किया जाता है, वह यहां सत्कृति कही गई है ॥ १०१॥ जो स्वयं विद्या, धन और सामर्थ्य द्वारा, या दूसरेके द्वारा अन्यका प्रतीकार किया या कराया जाता है वह उपकार कहा जाता है ॥ १०२ ।। जो अर्हन्त सिद्ध आचार्य उपाध्याय और साधुओंको गुणावलीका कृतीजन सदा कीर्तन करते हैं, वह स्तुति मानी गई है ॥ १०३ ॥ इस प्रकार इन उपर्युक्त एवं अन्य योगोंसे जो गुणीजनोंपर वात्सल्यका धारक होता है, वह वत्सल पुरुष सुधर्मा सभामें सौधर्म इन्द्रके द्वारा स्तुतिको प्राप्त होता है ।। १०४॥ जिसने बलिमंत्री द्वारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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