Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 3
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 520
________________ श्री पं० गोविन्दविरचित पुरुषार्थानुशासन-गत श्रावकाचार अथ तृतीयोऽवसरः दुर्गादुर्गतिदुःखाब्धिपाताज्जन्तूनयं यतः । घरत्येष ततो धर्म इति प्रा निरुच्यते ॥१ सर्वावयवसम्पूर्ण वपुरूपबलान्वितम् । तेजःसौभाग्यमारोग्यं यशोविद्याविभूतयः ॥२ रूपशीलवती नारी भक्तिशक्तियुताः सुताः । हाणि कृतशर्माणि सून्नतानि सितानि च ॥३ चारूपधानं शयनमासनं श्रमनाशनम् । सौवर्ण स्थालकच्चोलं सुधास्वादुसदाशनम् ॥४ भोगाः सर्वेऽपि साभोगाः सर्वोऽपि सुजनो जनः । अनपायाः सदोपाया नवा नित्यं महोत्सवाः ॥५ हस्त्यश्वरथपादातच्छत्रचामरसंयुतम् । चक्रित्वं निधिरत्नाढ्यं खचरामरसेवितम् ॥६ बलत्वं वासुदेवत्वं देवत्वं देवराजता । भास्वरत्वं कान्तिमत्त्वं चाहीन्द्रत्वमहमिन्द्रता ॥७ जगत्क्षोभकमहत्त्वं सिद्धत्वमपि निर्मलम् । विपुलं प्राप्यते सर्व धर्मेणैकेन सत्फलम् ॥८ सुन्दरं धर्मतः सर्व पापात्सर्वमसुन्दरम् । जायते प्राणिनां शश्वत्ततो धर्मो विधीयताम् ॥९ धर्मो माता पिता धर्मो धर्मो बन्धुर्गुरुः सुहृत् । धर्मः स्वामी नृणां यद्वा धर्मः सर्वसुखङ्करः ॥१० द्विविधः स भवेद् धर्मोऽनगारागारिगोचरः। साक्षान्मोक्षं ददात्याद्यः पारम्पर्येण तं परः ॥११ मोक्षार्थसाधनत्वेन धर्म तदनगारिणाम् । पश्चात्तेऽहं प्रणेष्यामि शृणु तावदगारिणाम् ॥१२ यतः यह घोर दुर्गतियोंके दुःखरूप समुद्र में पड़े हुए प्राणियोंको वहाँसे निकाल कर सुगतिके सुख में स्थापित करता है, अतः प्राज्ञजन इसे धर्म कहते हैं ॥ १॥ सर्व अंग-उपांगोंसे युक्त शरीर प्राप्त होना, रूपवान् होना, बलशाली होना, तेजस्विता, सौभाग्य, आरोग्य, यश, विद्या, विभूति, . प्राप्त होना, रूपवती शीलवती स्त्री मिलना, भक्ति और शक्तियुत पुत्र प्राप्त होना, सुखकारी उन्नत श्वेत प्रासाद मिलना, सुन्दर तकियोंसे युक्त शय्या और श्रमको दूर करने वाले आसन मिलना, सुवर्णके थाल-कटोरोंमे अमृतके समान मिष्ट स्वाद वाला सदा भोजन प्राप्त होना, सभी परिपूर्ण भोगोंकी प्राप्ति होना, सभी सुजन स्वजनोंका मिलना, विघ्न-बाधा-रहित सदा अर्थोपार्जनके उपार्जनके उपाय मिलना, नित्य नवीन महोत्सव होते रहना, हस्ती, अश्व, रथ, पदातिरूप चतुरंगिणी सेनासे तथा छत्र-चामरसे युक्त चक्रवर्तीपना, नव निधि और चौदह रत्नोंका स्वामी होना, विद्याधरों और देवोंसे सेवा किया जाना, बलभद्रपना, वासुदेवपना, देवपना, इन्द्रपना, सूर्यके समान देदीप्यमानता, चन्द्रके समान कान्तिपना, धरणेन्द्रपना, अहमिन्द्रपना, जगत्को आनन्द करनेवाला तीर्थङ्करपना, अर्हन्तपना और निर्मल सिद्धपना, ये सभी एक धर्मसे ही प्राप्त होते हैं, ये सभी उस धर्मके ही सत्फल हैं ।। २-८॥ प्राणियोंके जितना भी सुन्दर-इष्ट कार्य होता है, वह सर्व धर्मसे होता है और जितना भी असुन्दर-अनिष्ट कार्य होता है, वह सर्व अधर्मसे होता है, इसलिए मनुष्यको सदा धर्म करते रहना चाहिए ।। ९॥ संसारमें जीवोंका धर्म ही माता है, धर्म ही पिता है, धर्म ही बन्धु है, धर्म ही गुरु है, धर्म ही मित्र है, और धर्म ही स्वामी है। अधिक क्या कहें-धर्म ही सर्व सुखोंका करनेवाला है ॥ १०॥ वह धर्म दो प्रकारका है-मुनि विषयक और श्रावक विषयक । इनमें आदिका मुनिधर्म मोक्षको साक्षात् देता है और श्रावक धर्म उसे परम्परासे देता है ॥ ११ ॥ चतुर्थ पुरुषार्थ मोक्षका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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