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श्रावकाचार-संग्रह
गुरुभत्तिविहीणाणं सिस्साणं सव्वसंगविरदाणं । ऊसरखेत्ते वविय सुबीयसमं जाण सव्वणुट्टाणं ॥७१ रज्जं पहाणहीणं पतिहीणं देसगामरट्ठबलं । गुरुभत्तिहीण सिस्साणुट्ठाणं णस्सदे सव्वं ॥ ७२ सम्मत्तविणा रुई भत्तिविणा दाणं दया-विणा धम्मो । गुरुभत्तिहीण तवगुणचारितं णिष्फलं जाण ॥७३ होणादाणवियार विहीणादो बाहिरक्खसोक्खं हि । कि तजिये कि भजियं कि मोक्खं दिट्ठ जिणुद्दिष्टं ॥७४ कायकिलेसुववासं दुद्धरतवयरणकारणं जाण । तं णियसुद्धसरूवं परिपुष्णं चेदि कम्मणिम्मूलं ॥७५
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रहित सती, स्वामिभक्ति से रहित सेवक, जिनेन्द्र-भक्ति से रहित जैन और गुरु-भक्ति से विहीन शिष्य नियमसे दुर्गतिके मार्ग पर चल रहे हैं ॥ ७० ॥ ऊसर खेतमें बोये गये बीजके समान गुरुभक्ति से विहीन सर्व परिग्रहसे रहित भी शिष्योंका तपश्चरणादि सभी अनुष्ठान निष्फल जानना चाहिए ॥ ७१ ॥ जैसे प्रधान पुरुष के बिना राज्य, पतिके बिना अर्थात् स्वामीरूप राजाके बिना देश, ग्राम, राष्ट्र और सेनाका विनाश होता है, उसी प्रकार गुरु-भक्ति-विहीन शिष्योंके सभी अनुष्ठान विनाशको प्राप्त होते हैं ॥७२॥ सम्यक्त्वके बिना रुचि - श्रद्धा, भक्ति के बिना दान, दयाके बिना धर्म निष्फल है, उसी प्रकार गुरु भक्तिसे रहित शिष्योंके तप, गुण और चारित्र निष्फल जानना चाहिए ॥ ७३ ॥ हेय और उपादेयके विचारसे विहीन बाहरी इन्द्रिय सुखका त्याग क्या, सेवन क्या, और मोक्ष क्या देखा गया है ? अर्थात् नहीं देखा गया है, ऐसा जिनदेवने कहा है ॥ ७४ ॥ काय क्लेश, उपवास और दुर्धर तपश्चरण ये मोक्षके कारण हैं । किन्तु जब ये निज शुद्ध आत्म स्वरूपसे परिपूर्ण होते हैं, तभी कर्मोंको निर्मूल करने वाला उन्हें जानना चाहिए ||७५ || भावार्थ - आत्माके शुद्ध स्वरूप में स्थित रहते हुए ही व्रत, उपवास, कायक्लेश और दुर्धर तपश्चरण कर्मोके विनाशक और मोक्षके साधक होते हैं । इसलिए सबसे पहले मनुष्यको अपने शुद्ध आत्म-स्वरूपका ज्ञान और श्रद्धान करना चाहिए और पीछे तपश्चरणादि करना चाहिए ।
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