Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 3
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 517
________________ श्रावकाचार-संग्रह अज्जवसप्पिणि भरहे धम्ममाणं पमावरहियो ति। होवि ति जिणुद्दिढे गहु मण्णइ सो हुकुबिड्डी ।।५१ असुहादो गिरयाई सुहभावादो दु सग्गसुहमाओ। बुह-सुहभायं जाणिय जंते रच्चेहतं कुज्जा ॥५२ हिंसाइसु कोहाइसु मिच्छाणाणेसु पक्खवाएसु । मच्छरिएसु मएसु दुरहिणिवेसेसु अमुहलेसेसु ॥५३ विकहाइसु रद्दट्टज्झाणेसु असुयगेसु दंडेसु । सल्लेसु गारवेसु खाईसु जो वट्टए असुहभावो ॥५४ वव्यस्थिकाय-छप्पण तच्च-पयत्येसु सत्त-णवएसु । बंधण-मोक्खे तक्कारणरूवे बारसणुवेक्खे ॥५५ रयणत्तयस्सरूवे अज्जाकम्मे दयाइसद्धम्मे । इच्चेवमाइगो जो बटुइ सो होइ सुहभावो ॥५६ धरियउ बाहिर लिंग परिहरियउ बाहिरक्खसोक्खं हि। करियर किरियाकम्मं मरियउ जंमियउ बहिरप्पजिऊ ॥५७ . मोक्खणिमित्तं दुक्खं वहेइ परलोयविटि तणुवंडी। मिच्छाभावं ण छिज्जइ कि पावइ मोक्खसोक्खं हि ॥५८ ण हु वंडइ कोहाई देहं दंडेह कहं खवइ कम्मं । सप्पो कि मवह तहा वम्मीए मारिए लोए ॥५९ उचसमतवभावजुदो णाणी सो भावसंजदो होई । णाणी कषायवसगो असंजदो होइ सो ताव ॥६० में पंचमकालमें मिथ्यात्वपूर्वक गृहस्थ और साधु सुलभ हैं, किन्तु सम्यक्त्वपूर्वक श्रावक और मुनि मिलना दुर्लभ हैं ।। ५० ॥ आज इस अवसर्पिणीकालमें भरतक्षेत्रमें प्रमाद-रहित धर्मध्यान होता है, ऐसा जिनदेवने कहा है, जो इसे नहीं मानता, वह मिथ्यादृष्टि है ।। ५१ ॥ - अशुभभावसे नरकादिक प्राप्त होता है और शुभभावसे स्वर्ग-सुखादिक प्राप्त है, इस प्रकारसे दुःख और सुखके भावको जानकर जो तुझे रुचे उसे कर ।। ५२ ॥ जो हिंसादि पापोंमें, क्रोधादि कषायोंमें, मिथ्याज्ञानोंमें, पक्षपातोंमें, मात्सर्य भावोंमें, मदोंमें, दुराग्रहोंमें, अशुभ लेश्याओंमें, विकथादिकोंमें, रोद्र और आर्तध्यानोंमें, असूयादिमें, इन्द्रियोंके विषयरूप दंडोंमें, शल्योंमें, गारवोंमें, ख्याति-प्रतिष्ठादिमें संलग्न रहता है, वह सब अशुभ भाव है।। ५३-५४ ॥ जो छह द्रव्य, पांच अस्तिकाय, सात तत्त्व, नौ पदार्थके जानने में, बंध-मोक्षमें उनके कारण आस्रव-संवरमें, बारह अनुप्रेक्षाओंमें, रत्नत्रयके स्वरूपमें, आर्य (श्रेष्ठ) कर्मोंमें, दयादि धर्ममें एवं इसी प्रकारके अन्य प्रशस्त कर्मों में लगा रहता है, वह शुभ भाव है ।। ५५-५६ ।। बहिरात्मा जीव बाहिरी लिंगको चाहे धारण करे, चाहे बाहिरी इन्द्रियोंके सुखको छोड़े और चाहे बाहिरी क्रिया कर्मोको करे, फिर भी वह संसारमें जन्म लेगा और मरेगा ही ।। ५७ ॥ परलोकमें सुख पानेकी दृष्टि रखनेवाला मिथ्यादृष्टि जीव मोक्षके लिए शरीरको कष्ट देता हुआ दुःखको तो सहन करता है, किन्तु मिथ्यात्व भावको नहीं छोड़ता है, फिर वह मोक्षके सुखको कैसे पा सकता है ? अर्थात् मिथ्यात्वका त्याग किये बिना मोक्ष-सुखका पाना असंभव है ।।५८।। मिथ्यादष्टि जीव क्रोध आदि कषायोंको तो दंडित नहीं करता है, किन्तु शरीरको कष्ट देता है। फिर वह कर्मका क्षय कैसे कर सकता है। उसी प्रकार क्या लोकमें बांमोको मारने पर साँप क्या मर सकता है, अर्थात् बांमीको कूटने-पीटने पर भी सांप नहीं मर सकता ॥ ५९ ।। जो ज्ञानी उपशम भाव और तपश्चरण करनेके भावसे युक्त है, वही भावसंयत (भावलिंगी साधु) है। ज्ञानी पुरुष भी जब तक कषायोंके वशमें रहता है, तब तक वह असंयत (द्रव्यलिंगी) ही रहता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574