Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 3
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 516
________________ श्रीकुन्दकुन्दाचार्यविरचित-रयणसार-गत श्रावकाचार ४८३ खुद्दो रुद्दो रुट्ठो अणि? पिसुणो सगवियोऽसूयो। गायण-जायण-भंडण-दुस्सणसीलो दु सम्म-उम्मुक्को ॥४१ वाणर गद्दह माण गय वग्ध वराह कराह । पक्खि जलूय सहाव-णर जिणवरधम्म-विणासु ॥४२ सम्मविणा सण्णाणं सच्चारित्तं ण होइ णियमेणं । तो रयणत्तयमझे सम्मगुणुक्किट्ठमिवि जिणुद्दिढें ॥४३ तणुकुट्ठी कुलभंगं कुणइ जहा मिच्छमप्पणो वि तहा। दाणाइ सुगुणभंगं गइभंग मिच्छत्तमेव हो कटुं॥४४ देवगुरुधम्मगुणचारितं तवायारमोक्खगइभेयं । जिणवयणसुविढिविणां दोसइ किह जाणए सम्मं ॥४५ एक्कु खणं ण विचितइ मोक्खणिमित्तं णियप्पसहावं । अणिसं चितइ पावं बहुलालावं मणे विचितेइ ॥४६ मिच्छामइमयमोहासवमत्तो बोलए जहा भुल्लो। तेण ण जाणइ अप्पा अप्पाणं सम्मभावाणं ॥४७ पुवट्टियं खवइ कम्मं पविसुदु णो देह अहिणवं कम्मं । इह-परलोयमहप्पं देइ तहा उवसमो भावो ॥४८ अज्जवसप्पिणि भरहे पउरारुद्दट्ठज्झाणया दिट्ठा। गट्ठा दुट्ठा कट्टा पापिट्ठा किण्ह-णील-काऊदा ॥४९ अज्जवसप्पिणि भरहे पंचमयाले मिच्छपुव्वया सुलहा । सम्मत्त पुव्वसायारऽणयारा दुल्लहा होति ॥५० रत, और धर्म विरुद्ध आचरण करता है, वह सम्यक्त्वसे रहित है ।। ४०।। जो पुरुष क्षुद्र, रुद्र, रुष्ट, अनिष्ट, पिशुन, गर्व-युक्त और ईर्ष्यालु है, तथा गायन करनेवाला, याचन करनेवाला, कलह करनेवाला और दोष लगानेवाला है, वह सम्यक्त्वसे रहित है ।। ४१ ।। जो मनुष्य वानर, गंधर्व, श्वान, गज, व्याघ्र, वराह (सूकर), कराह (कछुवा), पक्षी और जोंकके समान स्वभाववाले होते हैं, वे जिनेन्द्र के धर्मका विनाश करते हैं ।। ४२ ।। सम्यक्त्वके बिना नियमसे सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र नहीं होते हैं इसलिए रत्नत्रय धर्मके मध्यमें जिनदेवने सम्यक्त्व गुणको उत्कृष्ट कहा है ।। ४३ ।। जैसे कुष्टशरीरी मनुष्य कुलका विनाश कर देता है, उसी प्रकारसे मिथ्यात्व भी अपनी आत्माका विनाश कर देता है। तथा वह दान आदि सुगुणोंका और सुगतिका भी विनाश कर देता है ।। ४४ ॥ देव, गुरु, धर्म, गुण, चारित्र, तपाचार, मोक्ष, गति-भेद और जिन-वचनको सुदृष्टिके बिना कैसे देख सकता है और कैसे सम्यक् प्रकारसे जान सकता है ॥ ४५ ॥ मनुष्य मोक्षके निमित्त एक क्षण भर भी अपने आत्म-स्वभावका चिन्तन नहीं करता है। किन्तु रात-दिन पापका चिन्तन करता रहता है और मनमें बहुत प्रकारके आलाप (मनसूबे या निरर्थक वार्तालाप) सोचता रहता है ।। ४६ ॥ मिथ्यामति, मद और मोह-मदिरासे उन्मत्त हुआ मनुष्य भूलता-सा बोलता है और इस कारण वह अपने सम्यक् भावोंको नहीं जानता है ॥४॥ उपशमभाव पूर्वोपार्जित कर्मका क्षय करता है और नवीन कर्मका आत्मामें प्रवेश नहीं होने देता है, तथा वह इस लोक और परलोकमें माहात्म्य प्रदान करता है ॥४८॥ आज इस अवपिणीकालमें और इस भावक्षेत्रमें मनुष्य अत्यधिक रौद्रध्यानी, आर्तध्यानी, नष्ट, दुष्ट, कठोर, पापिष्ठ और कृष्ण, नील, कापोत लेश्यावाले देखे जाते हैं। ४९ ।। आज इस अवसर्पिणीकालमें, भरतक्षेत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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