Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 3
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 498
________________ श्री वामदेव-विरचित संस्कृत-भावसंग्रह अतो देशवताभिख्ये गुणस्थाने हि पञ्चमे । भावास्त्रयोऽपि विद्यन्ते पूर्वोक्तलक्षणा इह ॥१ प्रत्याख्यानोदयाज्जीवो नो धत्तेऽखिलसंयमम् । तथापि देशसंत्यागात्संयतासंयतो मतः ॥२ विरतिस्त्रसघातस्य मनोवाक्काययोगतः । स्थावराजिविघातस्य प्रवृत्तिस्तस्य कुत्रचित् ॥३ विरताविरतस्तस्माद्भण्यते देशसंयमी। प्रतिमालक्षणास्तस्य भेदा एकादश स्मृताः ॥४ आद्यो दर्शनिकस्तत्र व्रतिकः स्यात्ततः परम् । सामायिकव्रती चाथ सप्रोषधोपवासकृत् ॥५ सचित्ताहारसंत्यागी दिवास्त्रीभजनोज्झितः । ब्रह्मचारी निरारम्भः परिग्रहपरिच्युतः॥६ तस्मादनुमतोद्दिष्टविरतौ द्वाविति क्रमात् । एकादश विकल्पाः स्युः श्रावकाणां क्रमादमी ॥७ गृही दर्शनिकस्तत्र सम्यक्त्वगुणभूषितः । संसारभोगनिविष्णो ज्ञानी जीवदयापरः ॥८ माक्षिकामिषमद्यं च सहोदुम्बरपञ्चकैः । वेश्या पराङ्गना चौयं धूतं नो भजते हि सः ॥९ दर्शनिकः प्रकुर्वीत निशि भोजनवर्जनम् । यतो नास्ति दयाधर्मो रात्रौ भुक्ति प्रकुर्वतः ॥१० इति दर्शनप्रतिमा । स्थूलहिंसानतस्तेयपरस्त्री चाभिकांक्षता । अणुवतानि पञ्चैव तत्यागात्स्यादणुव्रती॥११ योगत्रयस्य सम्बन्धात्कृतानुमतकारितैः । न हिनस्ति सान् स्थूलमहिसावतमादिमम् ॥१२ इस पंचम देशवत नामक गुणस्थानमें औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीनों ही भाव होते हैं ।। १ । यद्यपि प्रत्याख्यानावरण कषायके उदयसे जीव सकल संयमको नहीं धारण कर पाता है, तथापि अप्रत्याख्यानावरण कषायके क्षयोपशम होनेके कारण हिंसादि पापोंका एकदेश त्याग करनेसे जीव संयतासंयत माना जाता है ॥ २॥ इस पंचम गुणस्थानवी जीवकी मनवचन-काय इन तीनों योगोंसे त्रस जीवोंके घातसे विरति रहती है और गृहारम्भ-वश स्थावर जीवोंके विघातमें क्वचित् कदाचित् प्रवृत्ति रहती है, इस कारण वह देशसंयमी विरताविरत कहा जाता है। इसके प्रतिमा लक्षणरूप ग्यारह भेद कहे गये हैं ॥ ३-४ ॥ उनमें आदि भेद दर्शनिक है, दूसरा व्रतिक, तीसरा सामायिकव्रती, चौथा प्रोषधोवासी, पांचवां सचित्ताहारत्यागी, छठा दिवास्त्रीसेवनत्यागी, सातवाँ ब्रह्मचारी, आठवां निरारम्भी, नवा परिग्रहपरित्यागी, दशवां अनुमतिविरत और ग्यारहवां उद्दिष्टाहारविरत ये ग्यारह भेद श्रावकोंके क्रमसे होते हैं ।। ५-७ ॥ जो गृहस्थ सम्यग्दर्शन गुणसे विभूषित, संसार-शरीर और भोगोंसे विरक्त होता है, सम्यग्ज्ञानी और जीवदयामें तत्पर होता है, पंच उदुम्बर फलोंके साथ मधु, मांस और मद्यको नहीं खाता है, वेश्या और परस्त्रोका सेवन नहीं करता है, चोरी नहीं करता है और जुआ नहीं खेलता है और रात्रिमें भोजनका परित्याग करता है, वह दर्शनिक प्रतिमाधारी श्रावक है । क्योंकि रात्रिमें भोजन करनेवाले पुरुषके दयाधर्म नहीं होता है ।। ८-१० ॥ यह दर्शन प्रतिमाका वर्णन किया । स्थूल हिंसा, असत्य, चोरी, परस्त्री और परिग्रहकी अभिलाषा, इनका त्याग करनेसे पाँच अणुव्रत होते हैं। और इनका धारक जीव अणुव्रती कहलाता है ।। ११॥ मन, वचन, काय, इन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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